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महाराष्ट्र दिवस पर 59 साल की कंट्रोवर्सी : विदर्भ के साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज होती है बुलंद
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डिजिटल डेस्क, नागपुर। यह देश का पहला ऐसा शहर है, जो राजधानी से उपराजधानी बनने का दंश झेल रहा है। वर्ष 2014 में उम्मीदें जरूर परवान चढ़ी थी कि अब नागपुर को राजधानी का दर्जा मिलेगा। उम्मीदें इसलिए भी बढ़ी थी कि विदर्भ खासकर नागपुर से राज्य को मुख्यमंत्री मिला था और इसी नेतृत्व ने विदर्भ आंदोलन को धार दी थी, लेकिन सत्ताधारी नेताओं की वादाखिलाफी के कारण न विदर्भ स्वतंत्र राज्य बन सका और न नागपुर को राजधानी का दर्जा प्राप्त हो सका। 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भाजपा को विदर्भ ने इसलिए साथ दिया था कि वह स्वतंत्र विदर्भ राज्य बना सके, लेकिन अब ये विदर्भ पर बात करने तक तैयार नहीं है। विदर्भ की मांग करने वालों को ‘ठोंकने’ की बात कह रहे हैं। इससे विदर्भवादियों में भारी असंतोष है।
वादे पूरे नहीं हुए
1960 के पहले नागपुर सीपी एंड बेरार की राजधानी हुआ करता था। महाराष्ट्र के तत्कालीन नेताओं के आश्वासन के बाद नागपुर सहित संपूर्ण, संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल हुआ। इससे नागपुर की राजधानी का दर्जा छीनकर उसे उपराजधानी की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। विशेष यह कि संयुक्त महाराष्ट्र गठन के समय विदर्भ के संपूर्ण विकास के जो वादे किए गए थे, वे अब भी अधूरे पड़े हैं। न सिंचाई का अनुशेष खत्म हुआ और शैक्षणिक, रोजगार और उद्योगों का बैंकलॉग खत्म हो पाया। इसमें और इजाफा होने का दावा किया गया है।
विदर्भ विकास पर गंभीर नहीं
विदर्भ विकास को लेकर सरकार गंभीर नहीं है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2003 के बाद नागपुर में विधानमंडल सत्र के दौरान विधानसभा में एक भी अंतिम सप्ताह प्रस्ताव नहीं आया। ऐसे में कई गंभीर मुद्दे आज भी चर्चाओं से बाहर है। उनक समाधान या ठोस उपाय नहीं हो रहे हैं। विदर्भ पर अन्याय की इसी आशंका को देखते हुए राज्य पुनर्गठन के समय विदर्भ पर विशेष ध्यान देने की मांग की गई थी। इस दौरान अनेक वादे किए गए थे।
समितियों के रिपोर्ट धूल फांक रहे
59 वर्ष बाद भी वादे पूरे नहीं हुए। अन्याय का अध्ययन करने समय-समय पर तीन समितियां गठित हुई। विकास में असंतुलन का अध्ययन करने वर्ष 1984 में दांडेकर समिति, 1997 में निर्देशांक व अनुशेष समिति और हाल में डॉ. विजय केलकर समिति का गठन हुआ। दांडेकर समिति, निर्देशांक व अनुशेष समिति ने वर्षों पहले अपनी रिपोर्ट सदन को सौंप दी, लेकिन इन रिपोर्टों में दिखाई गई समस्याओं का अब तक निपटारा नहीं हुआ है। केलकर समिति ने भी अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली है। विकास में संतुलन साधने और अनुशेष दूर करने के लिए विदर्भ वैधानिक विकास मंडल की स्थापना की गई। किन्तु पिछले कुछ सालों में मंडल को विदर्भ का विकास करने दी जाने वाली विशेष निधि भी बंद कर दी गई है। अब वह सिर्फ अध्ययन करने तक सीमित है।
यह वादे अब भी अधूरे
विदर्भ संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल होने से पहले राज्य पुनर्रचना आयोग के फजल अली कमीशन की दौरे में महाराष्ट्र और विदर्भ के प्रमुख नेताओं में 28 सितंबर 1953 को विदर्भ की समस्या हल करने के लिए एक करार हुआ था, जिसे नागपुर करार के नाम से पहचाना जाता है।
इसमें कुछ प्रमुख आश्वासन दिए गए थे
- राज्य सरकार की नौकरियां अथवा शासन नियंत्रित सभी प्रकार के व्यवसाय संस्था में नौकरी में स्थानीय जनसंख्या के प्रमाण में भर्ती की जाएगी।
- हाईकोर्ट में न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय महाविदर्भ के न्यायाधीशों व वकीलों को न्याय मिलेगा।
- धंधे विषयक विज्ञानशास्त्र अथवा अन्य विशिष्ट प्रशिक्षण की जिन संस्थाओं में व्यवस्था है, उसमें इन सभी घटकों के विद्यार्थियों के लिए न्याय व पर्याप्त व्यवस्था की जाएगी।
- शासन की रचना में प्रत्येक घटक का प्रतिनिधित्व दिखेगा, इसकी दक्षता लेंगे।
- विदर्भ व मराठवाड़ा पर किसी प्रकार का अन्याय नहीं होगा। इसके विपरीत विदर्भ और मराठवाड़ा के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विशेष प्रयास किए जाएगे।
संयुक्त महाराष्ट्र बनने के पहले से नेता विरोध में
इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि विदर्भ को महाराष्ट्र में शामिल करने का विरोध संयुक्त महाराष्ट्र बनने से पहले होता रहा है। विरोध की आवाज नागपुर से बुलंद हुई थी। अनेक नेताओं ने विदर्भ को संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल करने पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी। शायद इन्हें पहले से आशंका थी कि विदर्भ के साथ न्याय नहीं होगा, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण द्वारा दिखाए गए सब्जबाग के बाद नेताओं ने विदर्भ को संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल करने पर अनुकूलता दिखाई थी, जिसमें विदर्भ को विशेष प्राथमिकता सहित कई आश्वासन दिए गए थे, किन्तु वर्ष 1984 में आई दांडेकर समिति की रिपोर्ट ने इन सब्जबागों की पोल खोलकर रख दी। इसके बाद समर्थन करने वाले नेता भी विरोध करने लगे है। सूत्रों ने बताया कि कोई नहीं चाहता था कि विदर्भ, महाराष्ट्र में शामिल हो। तत्कालीन मा.सा. कन्नमवार, मदन गोपाल अग्रवाल, मनोहरभाई पटेल, मारोतराव तुमपल्लीवार, नरेंद्र तिडके सहित अनेक नेताओं ने इसका जोरदार विरोध किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, गृहमंत्री स्व. गोविंद वल्लभ पंत समेत तत्कालीन कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष श्रीमती इंदिरा गांधी को एक पत्र सौंपकर विदर्भ को महाराष्ट्र में शामिल करने का विरोध किया था। स्व. कन्नमवार के नेतृत्व में इस शिष्टमंडल ने नेताओं से मांग की थी कि विदर्भ को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने विदर्भ के विकास का पूरा भरोसा दिलाया था। इसके लिए विशेष ध्यान देने का आश्वासन भी दिया था बल्कि पुणे स्थित सभी प्रमुख मुख्यालय नागपुर स्थानांतरित करने का आश्वासन दिया था। संयुक्त महाराष्ट्र बनाते समय सरकार द्वारा दिया गया एक भी वादा पूरा नहीं किया गया।
विदर्भ से चार मुख्यमंत्री, एक उपमुख्यमंत्री
नागपुर करार के बाद विदर्भ से चार मुख्यमंत्री और एक उपमुख्यमंत्री बने। दादासाहब कन्नमवार, वसंतराव नाईक, सुधाकरराव नाईक व देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और नाशिकराव तिरपुडे को उपमुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। मंत्री व राज्यमंत्री के रुप करीब 80 विदर्भियों को यह मौका मिला। विदर्भ से विधानसभा के अध्यक्ष पद श्री वानखेडे और उपाध्यक्ष पद शरद तसरे को विभूषित करने का मौका मिला। प्रमोद शेंडे विधानसभा का उपाध्यक्ष पद पर रहे हैं।
जब तक विदर्भ राज्य नहीं बनता, कोई नीति नहीं बनेगी
पश्चिम महाराष्ट्र की विचारधारा विदर्भ राज्य के आड़े आ रही है। फिर भाजपा हो या कांग्रेस। यही कारण है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी अपने वादे से मुकर रहे हैं। पूछने पर जवाब तक नहीं दे रहे हैं। मुख्यमंत्री कहते हैं कि यह मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है। केंद्रीय मंत्री कह रहे हैं कि मैं इस मामले में नहीं कुदूंगा। कोई नहीं चाहता कि विदर्भ अलग राज्य बने। हमने पश्चिम महाराष्ट्र से विदर्भ नहीं देने के पांच कारण पूछे है। वे जवाब नहीं दे रहे हैं। हम विदर्भ देने के 10 कारण बताने तैयार हैं। सरकार ने दांडेकर समिति, निर्देशांक व अनुशेष समिति, केलकर समिति की रिपोर्ट अभी तक मंजूर नहीं की है। हमारी केंद्र सरकार से मांग है कि जब छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, तेलंगाना दे सकते हैं तो विदर्भ क्यों नहीं? परिस्थिति काफी गंभीर है। सभी अनदेखी कर रहे हैं। जब तक विदर्भ राज्य नहीं बनता, तब तक कोई नीति नहीं बन सकती है।
-श्रीनिवास खांदेवाले, विदर्भवादी नेता व अर्थशास्त्री
Created On :   1 May 2019 11:04 AM IST