पश्चिमी यूपी में भाजपा के सामने गढ़ बचाने और विपक्ष के पास वजूद की रहेगी चुनौती
- पश्चिमी यूपी जीतना बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती
डिजिटल डेस्क, लखनऊ। उत्तर प्रदेश के 11 जिलों की 58 विधानसभा के लिए दस फरवरी को मतदान होगा। पश्चिमी यूपी में भाजपा का 2017 का प्रदर्शन देखे तो यहां से इन्हें 54 सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार चुनाव में चुनौतियां अलग हैं। तो इनके सामने गढ़ बचाने की चुनौती रहेगी। वहीं विपक्षी दलों को किसान आंदोलन से मिली संजीवनी से क्या उनका वजूद बच पाएगा। यह तो परिणाम आने पर पता चलेगा।
2017 के चुनाव में पश्चिमी यूपी में मेरठ विधानसभा में 7 में 6 भाजपा के खाते में गयी थीं। जबकि एक सीट भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी को हराने वाले सपा के रफीक अहमद के खाते में गयी थी। मुजफ्फरनगर में सभी सीटें भाजपा के खाते में गयी थीं।
शामली की तीनों सीटों में से दो पर भाजपा और एक पर सपा को विजयी मिली थी। बागपत की तीन में से दो सीटों पर भाजपा और एक पर रालोद ने जीत दर्ज की थी। हालांकि बाद में छपरौली विधायक ने भी भाजपा ज्वाइन कर ली थी। गाजियाबाद की पांचों सीट भाजपा के खाते में चली गई थीं। हापुड़ की तीन विधानसभा सीटों में दो पर भाजपा और एक पर बसपा के प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। गौतमबुद्धनगर की तीनों और बुलंदशहर की सातों सीट भाजपा के खाते में चली गई थीं। अलीगढ़ की भी सभी सात सीटों पर भाजपा जीत गई थी। आगरा में सभी नौ और मथुरा की पांच से चार सीटे भाजपा को जबकि एक सीट पर बसपा ने विजय पायी थी।
2017 के चुनाव में सपा और कांग्रेस ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था। रालोद और बसपा अकेले ही चुनाव मैदान में थे। लेकिन इस बार चुनाव में स्थिति अलग है। रालोद और सपा एक साथ हैं। बसपा और कांग्रेस अकेले दम पर लड़ रहे हैं। इस बार पश्चिम के इन जिलों में किसान आंदोलन का असर होने की वजह से मुकाबले कड़े हो गए हैं। मेरठ के प्रवीण चौधरी कहते हैं यहां पर कानून व्यवस्था बड़ा मुद्दा रहा है। लोगों के पशुओं की चोरी थमी है। लोगों की बहन बेटियों को लोग परेशान करते थे, वह भी कम हुआ है। एक तरफा कार्रवाई नहीं होती है। इसलिए यह सरकार वापस होगी।
यहीं के रहने वाले जुबेर का कहना है इस सरकार ने आपस में लड़वाने का काम किया है। किसानों को बहुत परेशानी से गुजरना पड़ा है। बहुत परेशानी के बाद इन लोगों ने आंदोलन वापस लिया है। इसका असर तो चुनाव में दिखेगा। मुजफ्फरनगर के रहने वाले गिरीश कहते हैं कि पश्चिमी यूपी में पहले कानून व्यवस्था एक बड़ा मुद्दा हुआ करता था, उससे कुछ सुकून मिला है। बहुत सी व्यवस्थाएं इस सरकार में ठीक हुई है। इसका फायदा इसी सरकार को मिलेगा।
मेरठ के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सुनील तनेजा कहते हैं कि पश्चिमी यूपी में मुद्दे सेकेण्ड्री होते हैं। यहां धुव्रीकरण का खेल रहता है। अभी स्थानीय स्तर के जो जनप्रतिनिधि है उनसे लोगों की नाराजगी है। प्रत्याषी बड़ा फैक्टर इनके बदलने से स्थिति अलग होगी। हां पिछली बार की मिली सीटों की अपेक्षा इस बार भाजपा को नुकसान जरूर होगा। पश्चिमी यूपी के जानकारों की मानें तो इस विधानसभा चुनाव में सपा और रालोद की दोस्ती की भी परीक्षा होगी। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद रालोद से छिटका वोट बैंक किसान आंदोलन के बाद एकजुट माना जा रहा है। दोनों पार्टियों के समर्थक मुजफ्फरनगर दंगे भुलाकर साथ तो आए हैं, पर बूथ पर यह कितना कारगर होंगे, यह आने वाले समय में ही साफ होगा।
वरिष्ठ पत्रकार समीरात्मज मिश्र का कहना है कि पश्चिमी यूपी में अगर 2017 तुलना में देखेंगे तो 2013 में जो समीकरण बने थे। जाटों का मुस्लिमों से जो अलगाव हुआ था। उसका फायदा भाजपा को मिला था। मुस्लिम वोटर कई पार्टियों में भी बंटे थे। कई जातियां भी भाजपा के पक्ष में थीं। जाट गुर्जर यहां पर प्रभावी हैं। किसान आंदोलन के बाद हालात बदले हैं। जाट बिरादरी इस आंदोलन की अगुवाई कर रही थी। 2013 के पहले जो महेन्द्र सिंह टिकैत के जमाने जो मुस्लिम जाट एकता दिखती थी। वही स्थित बन रही है। हलांकि अन्य कुछ जातियां और समुदाय अभी भी भाजपा के पक्ष में दिख रहे हैं। अगर जाट मुस्लिम एकजुटता दिखी तो भाजपा को नुकसान होगा।
(आईएएनएस)
Created On :   12 Jan 2022 3:01 PM IST