बीत चुके हैं चार साल, लेकिन बंगाल में एंटी-लिंचिंग बिल नहीं बना कानून
- पूर्व नियोजित लिंचिंग के मामले
डिजिटल डेस्क, कोलकाता। पश्चिम बंगाल (लिंचिंग की रोकथाम) विधेयक, 2019 को अगस्त 2019 में विधानसभा द्वारा पारित किया गया। इसमें अपराध की सीमा के आधार पर किसी व्यक्ति पर हमला करने या उसे घायल करने में शामिल लोगों के लिए मौत की सजा और जेल की सजा का प्रावधान है, जो तीन साल तक की अवधि के लिए है। हालांकि, आज तक, कानून लागू ही नहीं हो पाया। इसके कुछ प्रावधान केंद्रीय कानून से टकरा सकते हैं।
पश्चिम बंगाल उन जगहों में शामिल नहीं है, जहां पिछले कुछ वर्षों के दौरान लिंचिंग के प्रमुख मामले दर्ज किए गए, लेकिन राज्य के विभिन्न कोनों से जनता द्वारा इस तरह की खबर आती रहती है।
उदाहरण के तौर पर, उत्तर 24 परगना जिले के श्यामनगर में इस साल अगस्त में मोबाइल छीन कर भागने की कोशिश कर रहे एक युवक को स्थानीय लोगों ने पकड़ लिया और बुरी तरह पीटा। उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।
इसी साल जुलाई में बीरभूम जिले में अपनी पत्नी की हत्या कर भाग रहे एक व्यक्ति को पकड़कर पीट-पीट कर मार डाला गया। जून में दक्षिण 24 परगना जिले के बरुईपुर में एक संदिग्ध चोर की स्थानीय लोगों द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर दी गई।
4 सितंबर को भी, पश्चिम मिदनापुर जिले के दासपुर में एक संदिग्ध चोर को बुरी तरह पीटा गया और पुलिस द्वारा उसे बचाने से पहले वह गंभीर रूप से घायल हो गया। अब लिंचिंग या भीड़ को लेकर इस रिपोर्ट ने समाज पर कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं।
क्या न्यायिक व्यवस्था में विश्वास की कमी लोगों को कानून अपने हाथ में लेने के लिए प्रोत्साहित कर रही है? क्या इस संबंध में नए कानून उन लोगों पर अपना गुस्सा निकालने की घटनाओं को कम करने में मदद करेंगे, जिन्हें वे अपराध का दोषी मानते हैं?
आईएएनएस ने कुछ मनोवैज्ञानिकों और कानूनी विशेषज्ञों से बात कर इसका जवाब खोजने की कोशिश की। कलकत्ता विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के विजिटिंग फैकल्टी और केपीसी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के फैकल्टी डॉ तीथर्ंकर गुहा ठाकुरता के अनुसार, किसी भी समाज में हमेशा से ही भीड़ तंत्र के न्याय की लालसा रही है।
उन्होंने कहा, न्याय के प्रतिबिंब का चेहरा कभी-कभी, व्यक्तिगत और कभी-कभी सामूहिक होता है। जाहिर है, यह तब बड़ा आकार ले लेता है जब ज्यादा लोग शामिल बहोते हैं। मेरे लिए, ये प्रशासन में लोगों का विश्वास खोने या न्यायिक प्रणाली की सुस्ती का असर हैं।
ठाकुरता ने कहा, समाज में पूर्व नियोजित लिंचिंग के मामले होते हैं, जहां एक या अधिक वास्तविक मास्टरमाइंड होते हैं जिनका मकसद कुछ हासिल करना और दूसरों को इस प्रक्रिया में शामिल करना होता है। लेकिन वहां भी, मास्टरमाइंड दूसरों को यह धारणा देकर शामिल करने में सक्षम हैं कि वे किसी कार्रवाई के पीड़ित हैं।
कलकत्ता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील कौशिक गुप्ता को लगता है कि चूंकि भारतीय दंड संहिता में लिंचिंग की कोई अलग परिभाषा नहीं है और ऐसी घटनाओं को धारा 300 और 302 (गैर इरादतन हत्या और हत्या) के तहत निपटाया जाता है। इस आधार पर प्रस्तावित राज्य अधिनियम के केंद्रीय अधिनियम से टकराने की संभावना है।
उन्होंने कहा, यह कानूनी पहलू है, एक कानूनी पेशेवर के रूप में, मुझे वास्तव में इस बात पर संदेह है कि क्या कोई नया कानून वास्तव में लिंचिंग की घटनाओं को कम करने में मदद कर सकता है। बात यह है कि मौजूदा कानूनी प्रावधानों के तहत प्रशासन की कार्यकारी मशीनरी कितनी कुशलता से, विवेकपूर्ण और तुरंत काम करती है।
उन्होंने कुछ हद तक डॉ गुहा ठाकुरता के साथ सहमति व्यक्त की, कि ये प्रशासन में विश्वास खोने वाले लोगों या न्यायिक प्रणाली के सुस्त आंदोलन के प्रतिबिंब हैं।
गुप्ता ने कहा, यह एक हद तक सच है। लेकिन अगर आप भारत में लिंचिंग के आंकड़ों को देखें, तो आप देखेंगे कि लिंचिंग की घटनाएं ज्यादा हुई है, लेकिन आंकड़ा बहुत कम सामने आया है। हां, देश में न्याय व्यवस्था काफी धीमी है। लेकिन ऐसा क्यों? यह सिर्फ उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के लिए अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की अनिच्छा कारण है। इसके अलावा, निचली अदालत के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति में राज्य सरकारों का अनदेखा रवैया भी शामिल है।
हालांकि, कलकत्ता उच्च न्यायालय के वकील ज्योति प्रकाश खान को लगता है कि न्यायिक प्रणाली के सुस्त आंदोलन पर गुस्से को दोष देना एक तर्क है। खान ने कहा, लिंचिंग के कई मामले हैं जहां इसे किसी मकसद को पूरा करने के लिए मास्टरमाइंड द्वारा अंजाम दिया गया था, जो कई मामलों में, संपत्ति के मामलों से संबंधित है। आवश्यक है कि प्रशासन के अधिकारियों द्वारा मौजूदा कानूनी धाराओं का प्रभावी, विवेकपूर्ण और त्वरित कार्यान्वयन की जाए।
आईएएनएस
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Created On :   6 Nov 2022 3:30 PM IST