भास्कर हिंदी एक्सक्लूसिव: कांग्रेस जीती तो एमपी में भी होगी विधान परिषद? जानिए बीजेपी कैसे अटका सकती है रोड़ा, कितना आएगा खर्च, एक्सपर्ट से जानें पूरा डिटेल
- मध्य प्रदेश में 17 नवंबर 2023 को विस चुनाव
- विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस-बीजेपी तैयार
डिजिटल डेस्क, भोपाल। मध्य प्रदेश में अगले महीने विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसे लेकर राजनीतिक पार्टियां बड़े-बड़े दावों करने में लगी हैं। उन्हीं दावों में से एक मध्य प्रदेश में विधानसभा परिषद भी है। हाल ही एमपी का मेनिफेस्टो जारी करते हुए पूर्व सीएम कमलनाथ ने कहा कि, अगर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है तो सरकार राज्य में विधानसभा परिषद का विस्तार करेगी। इसके जरिए प्रदेश के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता लोगों की आवाज रख सकेंगे।
कांग्रेस ने राज्य में विधानसभा परिषद का होना अनिवार्य बताते हुए कहा कि मध्य प्रदेश विविधताओं से भरा है। विधानसभा से सभी लोगों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है, इसलिए परिषद का गठन होना बेहद ही जरूरी है। यह मुद्दा इस बार के विधानसभा में नहीं उठा है इससे पहले साल 2018 के चुनाव में भी उठा था। जिस पर कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने काम भी किया लेकिन साल 2020 में सियासी उठापटक की वजह से कांग्रेस की सरकार गिर गई थी जिसकी वजह से सारा काम ठंडे बस्ते में चला गया। भाजपा को इस मुद्दे पर कभी खुलकर बोलते हुए नहीं देखा गया है।
इतिहास
सबसे पहले साल 1956 में एमपी में विधान परिषद को लेकर संविधान में संशोधन किया गया था लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर न किए जाने पर ठंडे बस्ते में चला गया था। उसके बाद साल 1996 में भी ये कवायद शुरू हुई थी कि लेकिन पैसे की कमी को बताते हुए राज्य सरकार ने इसे सिरे से नकार दिया था।
क्या होता है विधान परिषद?
- विधान परिषद की संविधान के अनुच्छेद 168 में व्याख्या की गई है। जिसके मुताबिक, हर राज्य में एक विधानमंडल होगा, जिसका चीफ प्रदेश का राज्यपाल होगा जबकि प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यकारी प्रधान होंगे और लोकसभा की तरह ही विधानसभा का भी संचालन होगा।
- हर पांच साल पर विधानसभा चुनाव का प्रावधान है। बहुमत न होने पर चुनाव तय समय सीमा से पहले भी कराया जा सकता है। इसके अलावा राज्यपाल किसी कारण से विधानसभा भंग करते हैं तो तभी भी समय से पहले चुनाव कराएं जा सकते हैं।
- अनुच्छेद 168 में ये भी कहा गया है कि विधान परिषद वाले राज्य में राज्यपाल इसके संरक्षक जरूर होंगे, लेकिन इसे भंग नहीं कर पाएंगे। मौजूदा समय में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में विधान परिषद हैं।
- कश्मीर में भी विधान परिषद था, लेकिन साल 2019 में वहां से अनुच्छेद 370 हटने के बाद स्थिति बदल गई है। इसकी संरचना को लेकर अभी तस्वीर साफ नहीं हो पाई है।
कैसे होता है विधान परिषद का गठन?
- संविधान के अनुच्छेद 171 के मुताबिक, किसी राज्य में अगर विधान परिषद का गठन करना है, तो सबसे पहले विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश करना होता है। वहां से पास होने के बाद राज्य सरकार इस प्रस्ताव को केंद्र के पास भेजती है। अगर केंद्र को लगता है कि इस मामले पर केंद्रीय कैबिनट की समीक्षा जरूरी है तो इसकी समीक्षा के लिए विशेष बैठक बुलाती है।
- कैबिनट समीक्षा के बाद केंद्र सरकार इसे सदन के पटल पर रखती है। संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा से पास कराना होता है जिसके लिए केंद्र को कम से कम 2 तिहाई बहुमत की जरूरत पड़ती है। दोनों सदनों से बहुमत से पास होने के बाद ये प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जाता है और प्रेसिडेंट से मुहर लगने के बाद ये (विधान परिषद) अमल में आ जाता है। उसके बाद
- सामान्य प्रशासन विभाग और विधायी विभाग मिलकर आगे की प्रक्रिया अपनाता है।
कितने हो सकते हैं विधान परिषद के सदस्य?
- संविधान के अनुच्छेद 171 में विधान परिषद के सदस्यों के बारे में जानकारी दी गई है। इसके मुताबिक, अगर विधान परिषद का गठन होता है तो न्यूनतम सदस्यों की संख्या 40 होगी। लेकिन जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किए जाने तक वहां विधान परिषद की संख्या 36 ही थी।
- इन सबके अलावा अधिकतम सदस्यों को लेकर भी संविधान में विशेष नियम के प्रवाधान है। विधानसभा में जितनी कुल सदस्यों की संख्या होगी उसके एक तिहाई विधानसभा परिषद में सदस्यों की संख्या होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर एमपी में फिलहाल विधानसभा की संख्या 230 है। अगर आने वाले दिनों में विधान परिषद का गठन होता है तो कम से कम 40 जबकि अधिक से अधिक 76 सदस्य हो सकते हैं।
विधान परिषद चुनाव की क्या है प्रक्रिया?
- विधान परिषद का चुनाव विधानसभा के चुनाव से अलग होता है। इसका चुनाव आम जनता नहीं बल्कि आम जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि करते हैं।
- परिषद के कुल सदस्यों का एक तिहाई सदस्य राज्य के विधायकों द्वारा चुने जाते हैं।
- परिषद के एक तिहाई सदस्य स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं।
- विधान परिषद के 1/12 सदस्यों का निर्वाचन 3 वर्ष से अध्यापन कर रहे लोग चुनते हैं।
- 1/12 सदस्यों को राज्य में रह रहे 3 वर्ष पहले स्नातक की डिग्री हासिल कर चुके अभ्यर्थी निर्वाचित करते हैं।
- शेष सदस्यों का नामांकन राज्यपाल उन लोगों को करते हैं जिन नामों की सिफारिश प्रदेश सरकार करती है।
कितना आएगा खर्च?
- एमपी में विधान परिषद का गठन होता है तो करोड़ों रुपये खर्च आने की संभावना है। एमपी सरकार के मुताबिक, राज्य में 230 विधानसभा सीटें हैं। जिस पर सालाना 40.02 करोड रुपये खर्च आते हैं। अगर प्रदेश में विधान परिषद का गठन होता है तो 76 सदस्यों वाले विधान परिषद पर करीब 13 करोड़ रुपये सालाना खर्च आ सकते हैं।
- मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, विधान परिषद के गठन के समय ये खर्च 40 करोड़ तक आ सकते हैं, जो सुरक्षा, नियुक्ति, इंफ्रास्ट्रक्चर आदि के लिए खर्च होगा। कुल मिलाकर देखा जाए तो गठन के लिए कम से कम 50 करोड़ की बजट होना जरूरी है।
विधान परिषद का गठन समय की जरूरत या फिर सियासत?
- एबीपी ने राजनीतिक विश्लेषक मयंक शेखर के हवाले से इसके फायदे और नुकसान को लेकर बातचीत की है-
- मयंक शेखर के अनुसार, फेडरल स्ट्रक्चर में राज्य के पास कानून बनाने का सीमित अधिकार है। राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य, पुलिस, वन, स्वास्थ्य जैसे विषयों पर ही कानून बना सकती है। मध्य प्रदेश में वन जैसे विभाग का कानून बनाना भी आसान नहीं है। मयंक शेखर कहते हैं कि, एमपी में विधान परिषद के गठन हो जाने के बाद विधायी कार्यों के खर्च बढ़ जाएंगे। इसके अलावा कई बिल दोनों सदनों के फेर में लंबे समय तक लटके रह सकते हैं।
- मयंक शेखर आगे कहते हैं कि अब सवाल उठता है कि अगर इस चुनाव में कांग्रेस की सरकार बन जाती है तो क्या वो विधान परिषद का गठन कर सकती है? जिसका जवाब शेखर खुद न में देते हुए कहते हैं कि संसद के परिषद के गठन की शक्ति संसद के पास है, जहां बीजेपी की सरकार है।
- विधान परिषद को जरूरी बताते हुए कांग्रेस पार्टी के कद्दावर नेता और एमपी के पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष राजेंद्र सिंह कहते हैं कि, कई विधेयक पर विधानसभा में ठीक तरीके से बहस नहीं हो पाती है, जिसका नुकसान आम लोगों को उठाना पड़ता है। इसके लिए परिषद का गठन होना बेहद ही जरूरी है।
एडजस्टमेंट का केंद्र बनेगा विधान परिषद?
- राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, कहा जाता है कि विधान परिषद पार्टियों का एक बैकअप प्लान होता है। इससे वो उन नेताओं को साधने की कोशिश करते हैं जो विधानसभा में हार या पार्टी के लिए बेहद जरूरी होते हैं।
- इस मामले पर एमपी कांग्रेस के एक नेता ने बताया कि, पार्टी में कई ऐसे लोग हैं, जो या तो चुनाव नहीं जीत पाते हैं या उन्हें टिकट नहीं मिल पाता है, लेकिन ये नेता माहौल बनाने में काफी सक्षम होते हैं। ऐसे नेताओं का राजनीतिक एडजस्टमेंट के लिए पार्टियां बखूबी उपयोग करती हैं।
परिषद के लिए कब क्या-क्या हुआ?
- साल 1993 के घोषणा पत्र में कांग्रेस पार्टी ने विधान परिषद को लेकर हुंकार भरी थी। साल 1993 के चुनाव में कांग्रेस की जीत भी हुई और दिग्विजय सिंह सूबे के मुखिया भी बने लेकिन परिषद का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया। इसके अगले चुनाव यानी 1998 में कांग्रेस ने एक बार फिर अपने मेनिफेस्टो में शामिल किया।
- एमपी में नए विधानसभा भवन का जब निर्माण हुआ तब विधान परिषद के लिए भी हॉल बनाया गया लेकिन कामकाज के लिए कभी चर्चा नहीं हुई।
- साल 2008 में बीजेपी की सरकार और सीएम शिवराज से परिषद को लेकर सवाल पूछा गया तो उनका जवाब रहा कि विधान परिषद का गठन नहीं किया जाएगा। लेकिन 2013-18 में फिर से कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टो में इसे शामिल किया और सरकार बनने पर परिषद के गठन होने का दावा किया। साल 2018 के चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद कांग्रेस ने इसे लेकर कदम भी उठाए लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने और सरकार गिरने से पूरा मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।
Created On :   19 Oct 2023 3:11 PM IST