आईआईएमसी महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा फिल्मों में भी दिखे भारत

आईआईएमसी महानिदेशक  प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा फिल्मों में भी दिखे भारत
नई दिल्ली आईआईएमसी महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा फिल्मों में भी दिखे भारत
हाईलाइट
  • चित्र भारती फिल्मोत्सव 2022

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। समाज की बेहतरी, भलाई और मानवता का स्पंदन ही भारतबोध का सबसे प्रमुख तत्व है। फिल्म क्षेत्र में भारतीय विचारों के लिए यही कार्य "भारतीय चित्र साधना" जैसी समर्पित संस्था विगत कई वर्षों से कर रही है। भारतीय चित्र साधना के प्रतिष्ठित "चित्र भारती फिल्मोत्सव 2022" का आयोजन इस वर्ष मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 25 से 27 मार्च तक किया जाएगा। इस आयोजन के माध्यम से मध्य प्रदेश के युवाओं को कला जगत और खासकर फिल्‍मों के क्षेत्र में अवसर, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन प्राप्त होगा।

आज का सिनेमा पश्चिम की नकल कर रहा है, जबकि भारतीय चित्र साधना भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने वाले सिनेमा पर कार्य कर रहा है। भारतीय सिनेमा का इतिहास भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों और संवेदनाओं का ऐसा इंद्रधनुष है, जिसमें भारतीय समाज की विविधता, उसकी सामाजिक चेतना के साथ सामने आती है। भारतीय समाज का हर रंग सिनेमा में मौजूद है। भारत में अलग-अलग समय में अलग तरह की फिल्मों का निर्माण किया गया। 1940 की फिल्मों का दशक गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फिल्मों के निर्माण का समय था। 1950 का दशक फिल्मों का आदर्शवादी दौर था। 1960 का वक्त 1950 के दशक से काफी अलग था। राज कपूर ने जो रोमांटिक फिल्मों का ट्रेंड शुरू किया था, वह इस दौर में अपने पूरे शबाब पर था। 1970 का दशक व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह का था। 1980 का फिल्मों का दशक यथार्थवादी फिल्मों का दौर था, जबकि 1990 का वक्त आर्थिक उदारीकरण का था।

भारतीय सिनेमा में जनमानस और भारतबोध के आधार पर फिल्मों का निर्माण करने की परंपरा बहुत पुरानी है। बॉलीवुड का सिनेमा भारतीय समाज की कहानी को कहने का सशक्त माध्यम रहा है। इसके जरिए भारत की स्वतंत्रता की कहानी, राष्ट्रीय एकता को कायम रखने के संघर्ष की कहानी और वैश्विक समाज में भारत की मौजूदगी की कहानी को चित्रित किया जाता रहा है। भारतीय सिनेमा विदेशों में काफी कामयाब हुआ है और इसके जैसा दूसरा कोई ब्रांड नहीं जो दुनिया भर में इतना कामयाब हुआ है। भारतीय सिनेमा में बदलते भारत की झलक भी मिलती रही है। 1943 में बनी फिल्म "किस्मत" उस दौर में सुपर हिट साबित हुई थी। भारत छोड़ो आंदोलन जब चरम पर था, तब इस फिल्म का एक गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था, "दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तां हमारा है।"

1949 में भारत को स्वतंत्रता मिले कुछ ही वक्त हुआ था। देश के तौर पर हमारी पहचान बस बन रही थी। तब "शबनम" नामक फिल्म में पहली बार विविधभाषाई गीत का इस्तेमाल किया गया, जिसमें बंगाली, मराठी और तमिल भाषा का उपयोग किया गया था। इसके जरिए दर्शकों को ये बताने की कोशिश की गई थी कि ये सभी भाषाएं भारतीय भाषाएं हैं। मशहूर फिल्मकार वी. शांताराम 1921 से 1986 के बीच करीब 65 साल तक फिल्मी दुनिया में सक्रिय रहे। उन्होंने 1953 में विविध रंगी और बहुभाषी समाज होने के बाद भारत की एकता के मुद्दे पर "तीन बत्ती चार रास्ते" फिल्म बनाई। इस फिल्म की कहानी में एक ऐसा परिवार था, जिसके घर की वधुएं अलग अलग भाषाएं बोलती हैं।

1960 में के. आसिफ ने अकबर की बादशाहत पर "मुगले-ए-आजम" के तौर पर एक भव्य और ऐतिहासिक फिल्म बनाई", जबकि उसी वक्त राजकपूर "जिस देश में गंगा बहती है" और दिलीप कुमार "गंगा-जमुना" जैसी फिल्में बना रहे थे। 1981 में प्रदर्शित मनोज कुमार की फिल्म "क्रांति" ने भारतबोध के एक नए युग की शुरुआत की। 2001 में आमिर खान की फिल्म "लगान" में भारत के एक गांव के किसानों को अपनी लगान की माफी के लिए अंग्रेजों के साथ क्रिकेट मैच खेलते हुए दिखाया गया। इस मैच में भारतीय गांव के किसानों ने अंग्रेजों को हरा दिया। ये विश्वस्त भारत की तस्वीर थी, जो अपने उपनिवेशवाद के दिनों को नए ढंग से देख रहा था। इसके अलावा भूमंडलीकरण और तेजी से बदलते महानगरीय समाज, खासकर महिलाओं की स्थिति को फिल्मों में दिखाया गया। ऐसी फिल्मों की शुरुआत 1994 में प्रदर्शित फिल्म "हम आपके हैं कौन" से हुई।

भारत के सॉफ्ट पावर की शक्ति में हमारी फिल्मों की बहुत बड़ी भूमिका है। ये फिल्में ही हैं, जो पूरे विश्व में भारतीयता का प्रतिनिधित्व करती हैं। भारतीय फिल्में भारतीयता का आईना रही हैं। दुनिया को भी वो अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। हमारी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तो धूम मचाती रहती हैं, साथ ही पूरे विश्व में भारत की साख बढ़ाने, भारत को ब्रांड बनाने में भी बहुत बड़ा रोल प्ले करती हैं। सिनेमा की एक साइलेंट पावर ये भी है कि वो लोगों को बिना बताए, बिना ये जताए कि हम आपको ये सिखा रहे हैं, बता रहे हैं; एक नया विचार जगाने का काम करता है। अनेक ऐसी फिल्में होती हैं, जिन्हें  देखकर जब लोग निकलते हैं, तो अपने जीवन में कुछ नए विचार ले करके निकलते हैं।

भारतीय फिल्मों में आज दिख रहा बदलाव सिर्फ स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्मों जैसा भव्य नहीं है, बल्कि यह एक सौंदर्यशास्त्रीय बदलाव है, जो बदल रहा है, उभर रहा है और अपनी स्वतंत्र राह पकड़ रहा है। इन दिनों शौचालय जैसा विषय हो, महिला सशक्तिकरण जैसा विषय हो, खेल हों, बच्चों की समस्याओं से जुड़े पहलू हों, गंभीर बीमारियों के प्रति जागरूकता का विषय हो या‍ फिर हमारे सैनिकों का शौर्य, आज एक से एक बेहतरीन फिल्में बन रही हैं। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म "द कश्मीर फाइल्स" इस कड़ी का सबसे ताजा उदाहरण है। इन फिल्मों की सफलता ने सिद्ध किया है कि सामाजिक विषयों को लेकर भी अगर बेहतर विजन के साथ फिल्म बने, तो वो बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हो सकती है और राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान भी दे सकती है।

Created On :   22 March 2022 10:33 AM IST

Tags

और पढ़ेंकम पढ़ें
Next Story