जम्मू-कश्मीर में लोकसभा के चुनाव हो सकेंगे या नहीं ? फिर भी देश का बड़ा चुनावी मुद्दा

Elections 2019: Will the Lok Sabha elections be held in Jammu and Kashmir ?
जम्मू-कश्मीर में लोकसभा के चुनाव हो सकेंगे या नहीं ? फिर भी देश का बड़ा चुनावी मुद्दा
जम्मू-कश्मीर में लोकसभा के चुनाव हो सकेंगे या नहीं ? फिर भी देश का बड़ा चुनावी मुद्दा
हाईलाइट
  • जम्मू-कश्मीर में लोकसभा चुनाव होंगे या नहीं तस्वीर साफ नहीं
  • लोकसभा चुनाव 2019 के लिए जम्मू-कश्मीर बना बड़ा चुनावी मुद्दा

डिजिटल डेस्क, भोपाल। लोकसभा चुनाव को लेकर लगभग देश के हर राज्य में स्थिति साफ है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में मौजूदा हालात को देखते हुए न तो केन्द्र सरकार और न निर्वाचन आयोग यह बताने की स्थिति में है कि जम्मू-कश्मीर में लोकसभा के चुनाव हो सकेंगे या नहीं ? लेकिन आज जम्मू-कश्मीर राजनीतिक पार्टियों के लिए देश में बड़ा चुनावी मुद्दा बना हुआ है। 

बता दें कि राज्य में लोकसभा की कुल 6 सीट हैं। जिनमें से अनंतनाग सीट सालों से रिक्त है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनीं। इसलिए उन्होंने अनंतनाग की लोकसभा सदस्यता से त्यागपत्र दिया। मुख्यमंत्री महबूबा ने उपचुनाव कराने की तैयारी दिखाई, मुंबई के फिल्म क्षेत्र में कार्यरत भाई को उम्मीदवार घोषित किया। हालांकि आतंकवादी वानी की मौत के बाद से पूरे इलाके में अशांति फैली। आतंकी हमलों के कारण उपचुनाव टला। महबूबा ने भाई को राज्य मंत्रिमंडल में शामिल किया। हालांकि वे न विधानसभा के सदस्य थे और न विधान परिषद के।

साल 2014 के चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता था। फारूक अब्दुल्ला भी चुनाव हारे थे। पुलवामा कांड के बाद  राजनीतिक दलों का किस तरह ध्रुवीकरण होगा और कौन सी ताकतें उभरेंगी, इस पर सबकी नजर है। जम्मू-कश्मीर की 6 लोकसभा सीटों से अधिक महत्व कश्मीर मुद्दे का है। कश्मीर में सक्रिय दो प्रमुख दल नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की भाषा अधिक तल्ख हो गई हैं। 

गौरतलब है कि पिछली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने अलग-अलग चुनाव लड़े थे। भाजपा ने चुनाव के बाद पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। मुफ्ती साहब की मौत के बाद महबूबा मुफ्ती और केन्द्र के बीच दूरी बढ़ती गई। पहले तो महबूबा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने में आनकानी की। कुछ शर्ते मनवाकर मुख्यमंत्री बनी। फिर भी सहज रिश्ते नहीं रहे। मुफ्ती सरकार को केन्द्र ने बर्खास्त कर पहले राज्यपाल शासन और फिर राष्ट्रपति शासन लागू किया। जम्मू-कश्मीर के संविधान में इस तरह का प्रावधान है।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 साल का होता है। भाजपा ने पीडीपी के विधायक तोड़कर सरकार बनाने की कोशिश की, लेकिन दांव बेकार गया। इस बीच अचानक नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने मुफ्ती को सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया ताकि भाजपा तोड़फोड़ न कर सके। मुफ्ती ने पीडीपी सरकार बनाने का दावा करते हुए राज्यपाल को फैक्स किया। फैक्स पढ़े बगैर राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। 

कांग्रेस के गढ़ में भाजपा की सेंध 
लद्दाख लोकसभा क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है। साल 2014 में सबको चकित करते हुए भाजपा ने लेह-लद्दाख लोकसभा क्षेत्र पर जीत हासिल की थी। साल 2018 के अंत में भाजपा सांसद थुपस्तान छेवांग ने निजी कारणों के चलते पद से त्याग पत्र दे दिया। 

भाजपा-पीडीपी के पास दो-दो सीटें 
घाटी के दोनों क्षेत्र में जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद है और जम्मू के दो क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी के है। गुलाम नबीं के साथ मिली जुली सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे मुजफ्फर हुसैन बेग इनमें शामिल है। श्री बेग पीडीपी के सबसे अधिक समझदार और सुलझे नेता माने जाते हैं। जम्मू के उधमपुर से विजयी डॉ जितेन्द्र सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री हैं। 

राजनीतिक दलों के लिए चुनौती और मुद्दे

  • पुलवामा कांड के बाद राज्य के राजनीतिक दल कई खेमों में बंटे है। पहला मुद्दा हमले के बाद पाकिस्तान और आतंकवादियों से बात करने या न करने का है। दूसरा मुद्दा केन्द्र सरकार की आंतकवादियों के विरूद्ध कार्रवाई का है। आतंकी मारे जा रहे हैं, लेकिन आतंकी गतिविधियों में कमी नहीं आई।  
  • पुलवामा कांड के बाद देश के कुछ इलाकों में कश्मीरी नागरिकों को धमकियां मिली। कुछ पर हमले हुए। कुछ कश्मीरी छात्रों ने पुलवामा  में शहीद सशस्त्र बल सैनिकों की मौत पर भारत विरोधी संदेश भेजे। कई जगह पुलिस में शिकायत दर्ज की गई। इस मुद्दे पर दो प्रादेशिक दल भारत सरकार पर आरोप लगा रहे है। जबकि भाजपा ने कश्मीर के अलगावादियों पर पाकिस्तान परस्ती का आरोप लगाया हैं। 
  • राज्य में तीसरी ताकत खड़ी करने का प्रयास असफल रहा। कुछ लोगों की निगह फैजल शाह पर है। अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा-आईएस में शाह अव्वल आए थे। उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने का ऐलान किया। महीनें बीत जाने के बावजूद न तो उनका आइएएस से त्याग पत्र मंजूर हुआ और पुलवामा के हत्याकांड के बाद वे भी असमंजस में लग रहे हैं। 

 

Created On :   22 Feb 2019 2:02 PM IST

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