क्या है सुभाष चंद्र बोस की 'मौत का सच?'
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डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था। उन्हें लोग "नेताजी" भी कहकर बुलाते थे। भारत की आजादी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की। भारत की आजादी में आजाद हिंद फौज की बहुत बड़ी भूमिका थी। मगर अफसोस, खुद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को आजाद होते नहीं देख पाए, क्योंकि 18 अगस्त 1945 को ही उनकी मौत हो गई थी।
हालांकि, नेताजी की मौत आज भी एक रहस्य बनी हुई है और भारत में एक बड़ा तबका मानता है कि नेताजी की मौत अगस्त 1945 में हुई विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी। सियासी हलकों में भी उनकी मौत को लेकर संदेह समय-समय पर उठता रहता है और अब भी नेताजी के समर्थक इस बात को मानने को तैयार नहीं है कि उनकी मौत विमान दुर्घटना में ही हुई थी।
क्या हुआ था 18 अगस्त 1945 को?
सुभाष चंद्र बोस जापान में रह रहे थे। 18 अगस्त 1945 को नेताजी का विमान ताईपे हवाई अड्डे पर ईंधन भराने के लिए खड़ा हुआ था। उनके साथ उस वक्त कर्नल हबीबुर्रहमान भी थे। जैसे ही विमान ईंधन भरवाकर स्टार्ट हुआ तो एक तेज की आवाज आई। ऐसा लगा जैसे विमान में बम विस्फोट हुआ हो, लेकिन बाद में पता चला कि विमान का प्रोपेलर टूट गया था। विमान नीचे टकरा गया था। विमान में मौजूद हबीब और नेताजी बेहोश हो गए। उस हमले में जिंदा बचकर आए हबीबुर्रहमान ने बताया था कि जब उनको होश आया तो उन्होंने देखा कि विमान में आगे आग लगी हुई है और पीछे का रास्ता पूरी तरह से बंद हो गया है।
उन्होंने नेताजी को आगे से निकलने को कहा। नेताजी की वर्दी पर पेट्रोल गिर चुका था और जब उन्होंने आगे से निकलने की कोशिश की, तो आग की लपटों ने उन्हें घेर लिया और धीरे-धीरे नेताजी जलने लगे। इसके बाद हबीब ने उन्हें बचाने की कोशिश की। बाद में नेताजी को बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया। हबीब कहते हैं कि उस रात नेताजी कभी होश में रहते तो कभी बेहोश हो जाते। वो जब-जब होश में आते, तो यही कहते थे कि आजादी की लड़ाई जारी रखो। उसी रात नेताजी ने आखिरी सांस ली और 20 अगस्त 1945 को उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया।
विमान दुर्घटना का कोई रिकॉर्ड ही नहीं !
सुभाष चंद्र बोस के साथ उस वक्त मौजूद हबीबुर्रहमान ने गवाही दी थी कि नेताजी की मौत उस हादसे में हो गई थी और उनका अंतिम संस्कार भी हबीब की मौजूदगी में ही हुआ था। नेताजी की मौत की खबर भी समाचारों में आ गई थी, लेकिन विमान दुर्घटना का कोई रिकॉर्ड आज भी मौजूद नहीं है। शायद नेताजी की मौत पर शक होने का सबसे बड़ा कारण भी यही है। भारत में एक बड़ा तबका भी यही मानता है कि नेताजी उस विमान दुर्घटना से जिंदा बच निकले थे और बाद में रूस चले गए थे। पहले ताईवान जापान के कब्जे में था और बाद में अमेरिका ने इसपर कब्जा कर लिया, लेकिन इन दोनों ही देशों के पास इस विमान दुर्घटना का कोई रिकॉर्ड नहीं है। इस बात को बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने एक इंटरव्यू में कहा था।
नेताजी से जुड़ी जानकारी क्यों नहीं होती सार्वजनिक?
नेताजी की मौत से जुड़ी जानकारी को सार्वजनिक करने की बात कई बार उठती भी रही है, लेकिन आज तक उनकी ज्यादा फाइलें सार्वजनिक नहीं की गई। पिछले साल नेताजी के जन्मदिन पर कुछ फाइलें सार्वजनिक तो हुई थीं, लेकिन उनमें नेताजी की मौत के बारे में ज्यादा जानकारी सामने नहीं आई थी। भारत सरकार बार-बार ये कहती रही है कि अगर नेताजी की मौत से जुड़ी फाइल सार्वजनिक कर दी जाती है, तो इससे विदेशी संबंध खराब होंगे। हालांकि, नेताजी के समर्थकों का कहना है कि फाइलों के सार्वजनिक होने से असली भूचाल तो देश के अंदर ही आ जाएगा। कई बार पहले ये बात सामने आ चुकी है कि नेताजी को रूस के क्रांतिकारी जोसेफ स्टालिन ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था, क्योंकि नेताजी के संबंध हिटलर से थे और स्टालिन को ये पसंद नहीं था।
बोस के परिवार की जासूसी कराई नेहरू ने
भारत सरकार ने आजादी के बाद अगले दो दशकों तक बोस परिवार की जासूसी करवाई थी। ये जानकारी इंटेलिजेंस ब्यूरो की फाइलें सार्वजनिक होने के बाद सामने आई थी। ये कहा गया था कि ये जासूसी भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने करवाई थी। हालांकि बोस परिवार की जासूसी ब्रिटिश शासन में ही शुरू हो गई थी, जिसे बाद में नेहरू सरकार ने भी जारी रखा। नेहरू पर ये आरोप इसलिए भी लगा क्योंकि 1948 से 1968 तक जिन 20 सालों के दौरान ये जासूसी हुई, उस दौरान पहले 16 सालों में नेहरू प्रधानमंत्री थे।
बोस परिवार की जासूसी पर बीजेपी नेता भी नेहरू सरकार और कांग्रेस पर हमला करते रहते हैं। बीजेपी नेताओं का मानना है कि नेहरू के मन में संदेह था कि बोस उस विमान दुर्घटना में नहीं मरे थे। बीजेपी नेता कहते हैं कि नेहरू को इसी बात का शक था और इसलिए वो उनके परिवार वालों की जासूसी करते थे, उसके पत्रों की निगरानी करवाते थे, क्योंकि नेहरू को लगता था कि बोस अपने परिवार से संपर्क जरूर करते थे।
क्या वाकई गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस थे?
ये भी कहा जाता है कि अयोध्या में जो शख्स गुमनामी बाबा के रूप में जी रहा था, वो असल में सुभाष चंद्र बोस ही थे। बताया जाता है कि ये गुमनामी बाबा 1970 के दशक में फैजाबाद जिले में पहुंचे थे। शुरुआत में ये अयोध्या की लालकोठी में बतौर किराएदार रहते थे और बाद में बस्ती में जाकर रहने लगे। इसके बाद ये गुमनामी बाबा अयोध्या आकर बस गए। उनके साथ एक सेविका भी रहती ती, जिसका नाम सरस्वती देवी बताया जाता था।
इस बाबा को गुमनामी बाबा इसलिए कहा जाता था, क्योंकि ये ज्यादा किसी से बातचीत नहीं करता था और शांत ही रहता था। 16 सितंबर 1985 को इन गुमनामी बाबा की मौत हो गई थी। बाबा की मौत के बाद इनके कमरे से कुछ ऐसी चीजें बरामद हुई थी, जो ये सोचने को मजबूर कर रही थी कि ये बाबा कोई साधारण बाबा नहीं थे और इनके तार सुभाष चंद्र बोस से जुड़े।
क्यों सुभाष चंद्र बोस से जुड़े बाबा के तार?
दरअसल, गुमनामी बाबा की मौत के बाद जब उनके कमरे की तलाशी ली गई, तो वहां से कुछ ऐसे दस्तावेज हासिल हुए, जिसने सोचने को मजबूर कर दिया और इसी के बाद से ये कयास तेज हो गए कि ये सुभाष चंद्र बोस हो सकते हैं। इसके साथ ही कुछ ऐसी बातें भी थी, जिसने इन कयासों को और मजबूत कर दिया। गुमनामी बाबा के बारे में ये कोई नहीं जानता कि ये शख्स आखिर फैजाबाद-बस्ती के इलाकों में कैसे पहुंचा? एक बात ये भी कि 23 जनवरी को लोग इनसे मिलने क्यों आया करते थे, जबकि वो बाबा ज्यादा किसी से मिला-जुला नहीं करते थे? तीसरी बात ये थी कि अगर ये बाबा जंगलों में रहता था, तो इसे इतनी अच्छी अंग्रेजी और जर्मन भाषा कैसे आती थी? चौथी ये इस बाबा के पास दुनियाभर के नामचीन अखबार, साहित्य, सिगरेट और शराब कौन पहुंचाता था? आखिरी बात ये भी कि जब तक गुमनामी बाबा जिंदा रहे, तब तक सुभाष चंद्र बोस के जिंदा होने के भी बातें सामने आती रहीं, लेकिन इस बाबा की मौत के बाद ही इन अटकलों पर विराम क्यों लग गया?
Created On :   22 Jan 2018 2:05 PM IST