दर-दर ठोकरें खाकर जिसने बनाई पहचान, जानें कौन था ये मौसिकी का देव 'जयदेव'
डिजिटल डेस्क। एक आदमी जो पैदा हुआ नैरोबी में, पला-बढ़ा लुधियाने में और एक रोज भागकर मुम्बई पहुंच गया, फिल्म स्टार बनने के लिए। तब उसकी उम्र थी महज पंद्रह साल जो कि किसी लिहाज से हीरो का रोल पाने लायक नहीं थी। किस्मत अच्छी थी इसलिए कुछ काम भी मिला, मगर वैसा नहीं जैसा सोचा था। ख्वाहिशों का फैलाव जब असलियत के दबाव से कुछ कम हुआ, तो उसने वापसी की गाड़ी पकड़ी और अपने घर जाकर जिम्मेदारियों का बोझ उठा लिया।
मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया...
मगर वो लौटकर फिर से मुम्बई आया। इस दफा नए जोश और नई भूमिका में बंधकर आया। पर्दे पर संवाद बोलने की बजाय उसने धुनों को जोड़ने में महारत पाई और फिर उसके गीतों ने वो असर पैदा किया कि सदाबहार देव आनंद को भी उसी के एक गीत से अपनी जिंदगी का फलसफा उधार लेना पड़ा। वो गीत था "मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया" और वो आदमी था मौसिकी का देव, जयदेव।
नवकेतन के लिए चेतन आनंद ने 1952 में एक फिल्म बनाई थी "आंधियां" जिसमें देव आनंद और निम्मी मुख्य भूमिका में थें। इस फिल्म में महान "सरोद वादक अली अकबर खान" का संगीत था। खान साहब ने ही जयदेव को बतौर असिस्टेंट अपने पास रखा और इस बैनर की अगली फिल्म "हमसफर" में भी जयदेव खान साहब के सहायक बने रहे। इसके बाद अली अकबर खान तो नवकेतन को छोड़ गए लेकिन जयदेव इसी बैनर के साथ रह गए।
अपने समकालीन दूसरे कई संगीतकारों की तरह जयदेव भी महान सचिन देव बर्मन के भी असिस्टेंट बने और बाद में स्वतंत्र रूप से अपना काम शुरू किया और खूब नाम भी कमाया।
"बर्मन दा" के साथ उनका ये साथ 1954 में आई नवकेतन की ही हिट फ़िल्म "टैक्सी ड्राइवर" से शुरू हुआ था जो कि 1960 की "काला बाजार" तक चलता रहा।
देव आनंद अपने छोटे भाई विजय आनंद के साथ मिलकर कुछ नया करना चाहते थें। तभी दोनों भाइयों ने एक दोहरी भूमिका वाली कहानी पर फिल्म प्लान की। इसी बीच हुआ कुछ ऐसा कि जयदेव ने देव आनंद से उनकी किसी फिल्म में बतौर संगीतकार ब्रेक देने की गुजारिश की। ये जानकर देव आनंद ने अपने प्रिय संगीतकार बर्मन दादा से इस बारे में पूछा तो दादा ने भी हरी झंडी दे दी। बस फिर क्या था इस कहानी पर काम शुरू हुआ और जयदेव एक म्यूजिक डायरेक्टर के तौर पर दुनिया के सामने आए। ये फिल्म थी साल 1961 की सुपरहिट फिल्म "हम दोनों" जिसके गाने आज भी सदाबहार माने जाते हैं।
"अभी न जाओ छोड़ कर.. के दिल अभी भरा नहीं"
"हम दोनों" में जहां एक ओर फिलॉसफी से भरा "मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया" जैसा गाना था तो दूसरी ओर "अभी न जाओ छोड़कर" जैसा नर्म रूमानी गीत भी था। "कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया" जैसी गजल के साथ "अल्लाह तेरो नाम" जैसा भजन भी था।
आगे जाकर जयदेव के हिस्से बहुत बड़े बजट की फिल्में नहीं आयी। लेकिन उन्होंने जिस भी फ़िल्म के लिए संगीत रचा लाजवाब ही रचा। फिर वो अभिनेता सुनील दत्त की डकैत ड्रामा फिल्म "मुझे जीने दो" हो या "रेशमा और शेरा"। 1973 की म्यूजिकल हिट "प्रेम परबत" हो या फिर बिग बी अमिताभ बच्चन और रेखा अभिनीत 1977 की फिल्म "आलाप"।
यहां "प्रेम परबत" का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि वक्त के साथ इस फिल्म का प्रिंट हमेशा के लिए खराब हो गया लेकिन रेडियो और एफएम चैनलों पर इसका एक गीत "ये दिल और उनकी निगाहों के साये" बेहद ही पॉपुलर है जिसे लता मंगेशकर ने गाया है।
इस गीत से किया सबके दिलों पर राज
"दो दीवाने शहर में
रात में और दोपहर में
आब-ओ-दाना ढूँढते हैं
इक आशियाना ढूँढते हैं"
जयदेव के माधुर्य का जादू ही है जो उनके गीत आज भी लाखों दिलों पर राज करते हैं। 1977 में आई "घरौंदा" के गाने तो प्यार में डूबे दीवानों के लिए किसी एंथम से कम नहीं है। "दो दीवाने शहर में" या फिर "तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है" कुछ ऐसे गीत है जो साबित करते हैं कि जयदेव किस कदर वक्त से आगे थें।
6 जनवरी 1987 को 67 साल की उम्र में जयदेव ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। उनकी बनाई धुनें कल भी जवान थी और आज बरसों बाद भी उतनी ही जवान है।
Created On :   6 Jan 2018 9:15 AM IST