जानिए क्या है वैदिक वर्ण व्यवस्था का सच, जन्म से नहीं कर्म से तय होता था वर्ण
डिजिटल डेस्क । भारतीय इतिहास में वर्णपरिवर्तन या वर्णपतन के सैंकड़ों ऐतिहासिक उदाहरण मिलते हैं। पहले वर्ण व्यवस्था जन्म से नही थी, व्यक्ति के कर्म से वर्ण तय होता था. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे –
- ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे, लेकिन उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।
- ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र के भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किए। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
- सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
- राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)
- अगर उत्तर रामायण की मिथक कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
- राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)
- धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.२.२)
- आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.२.२)
- भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।
- विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।
- हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.३.५)
- क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.८.१)
- वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं।
- मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।
- ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।
- राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।
- त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।
- विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
- विदुर दासी पुत्र थे। तब वो ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।
- वेदों में "शूद्र" शब्द लगभग बीस बार आया है। कहीं भी उसका अपमान जनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका पद कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।
- वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है ("तपसे शूद्रम" -यजु .३०.५), और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है।
- चार वर्णों से अभिप्राय यही है कि मनुष्य द्वारा चार प्रकार के कर्मों को रूचि पूर्वक अपनाया जाना। वेदों के अनुसार एक ही व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति चारों वर्णों से युक्त है। तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय को वर्ण शब्द से सूचित किया है।
अतः वैदिक ज्ञान के अनुसार सभी मनुष्यों को चारों वर्णों के गुणों को धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।
यही पुरुष सूक्त का मूल तत्व है। वेद के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगीरा, गौतम, वामदेव और कण्व आदि ऋषि चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करते हैं। ये सभी ऋषि वेद मंत्रों के द्रष्टा थे (वेद मंत्रों के अर्थ का प्रकाश किया) दस्युओं के संहारक थे। इन्होंने शारीरिक श्रम भी किया तथा हम इन्हें समाज के हितार्थ अर्थ व्यवस्था का प्रबंधन करते हुए भी पाते हैं।
हमें भी इनका अनुकरण या अनुशरण करना चाहिए।
सार रूप में,
(वैदिक समाज मानव मात्र को एक ही जाति, एक ही नस्ल मानता है)
- वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है। किसी भी प्रकार के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते।
- अतः हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को अलग कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें।
- हमें गुमराह करने के लिए वेदों में जातिवाद के आधारहीन दावे करनेवालों की मंशा को हम सफल न होने दें और समाज के अपराधी बनाम दस्युदासराक्षसों का भी सफ़ाया कर दें।
- हम सभी वेदों की छत्र-छाया में एक परिवार की तरह आएं और मानवता को बल प्रदान करें।
Created On :   12 May 2018 12:44 PM IST