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पातालकोट के ग्रामीण जिनके करीब भी नहीं पहुंच सका कोविड वायरस
डिजिटल डेस्क छिंदवाड़ा। वे रोज सुबह न जॉगिंग करते हैं न जिम में कसरत, वे चादर बिछाकर योग आसन भी नहीं करते और न मल्टीविटामिन की गोलियां खाते हंै। मोटापा, बीपी, सुगर जैसी बीमारी तो दूर कोरोना भी इनके करीब तक नहीं पहुंच पाया। ये गरीब लोग तामिया के पातालकोट क्षेत्र के गांवों में निवास करते हैं।
कोविड वायरस की दस्तक होते ही आम लोगों ने मुंह पर मास्क और सेनेटाइजर से दिन में तीन चार बार हाथ धोने की आदत डाल ली। कोरोना की दूसरी लहर में लाकडाउन के दौरान लोग एक दूसरे से दूर हो गए। जिले के सभी नगर और अधिकांश गांवों में मौत का तांडव देखने मिला, लेकिन तामिया तहसील के पातालकोट क्षेत्र में रहने वाले भारिया आदिवासी इससे कोसों दूर रहे। यहां के ग्रामीणों की औसत आयु ९० साल है। जंगलों के बीच बसे १ दर्जन से ज्यादा गांव कोरोना की तीसरी लहर से भी अब तक बचे हुए हैं। इनकी इम्युनिटी इतनी स्ट्रांग है कि बीमारियां इन्हें छू भी नहीं पाती। चिकित्सक तब हैरान हो गए जब दूसरी लहर तक करीब १५० लोगों के सेम्पल लिए गए और इनमें से एक भी पॉजिटिव नहीं निकला। बाहरी दुनिया के संपर्क में आने के बाद भी कोरोना वायरस का इन पर कोई असर देखने नहीं मिला।
कटोरानुमा पातालकोट का सोंदर्य है मशहूर
- छिंदवाड़ा से ७८ किलोमीटर की दूरी
- ७९ किलोमीटर के क्षेत्र में फैली घाटियां
- समुद्र तल से ३,२५० फीट की औसत ऊंचाई
- कटोरानुमा गहरी खाई, बादलों को छूती पहाडिय़ां
- जड़ी-बूटियों का खजाना, दुर्लभ पेड़-पौधे
- १८ से ज्यादा दुर्गम इलाकों में बसे गांव
अभाव में भी खुशी से जीते हैं जीवन
संसाधनों के अभाव में आदिवासी परिवार जमीन पर ही सोते हैं। झिरिया का पानी पीते हैं। चटनी, रोटी ही इनके लिए लजीज व्यंजन है। पांच साल की उम्र से ९० साल का व्यक्ति भी रोजाना ५ किलोमीटर से ज्यादा पैदल चलता है। बच्चे तो अपने वजन के बराबर का बोझ सिर पर रखकर १-१ किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ लेते हैं। इनके जीवन में तनाव, डिप्रेशन, ज्यादा ख्वाहिशें नहीं है। मनोरंजन के लिए तीज-त्यौहार ही मुख्य साधन है।
दसरीबाई खमरिया, सरपंच कारेआम रातेड़
देसी खाना ही तंदरुस्ती का राज
पातालकोटवासियों का खानपान ही उनकी तंदरुस्ती का राज है। यहां के लोग मुख्य रुप से मक्का, ज्वार, बाजरा की रोटी, पेजा, मही और मक्के का दलिया, बल्हर यानी देसी सेमी की दाल और जंगल में पाई जाने वाली भाजी के साथ चावल की जगह कुटकी और समा का इस्तेमाल करते हैं। महुए की देशी शराब का सेवन करते हैं तो वहीं महुए के लजीज व्यंजन भी तैयार करते हंै।
ये जड़ी बूटियां भी करते हैं उपयोग
यहां के लोग जंगली अदरक, जंगली प्याज, जंगली सिंघाड़ा जैसी तमाम जड़ी बूटियां व कंद का उपयोग जंग फूड की तरह हैं। ये जड़ी व कंद इम्युनिटी को बढ़ाने में काफी कारगर है। इसके अलावा अन्य जंगली कंद-मूल और फल हैं, जिनका उपयोग परिवार का हर सदस्य भूख मिटाने के लिए करता है।
ये गांव अब तक कोरोना से अछूते
शहर से पचमढ़ी रोड पर ६० किलोमीटर दूर स्थित ग्राम बिजोरी से पातालकोट का सफर शुरु होता है। इस इलाके में करीब १८ गांव ऐसे हैं, जहां भारिया जनजाति के लगभग ५ हजार लोग रहते हैं। जिसमें पातालकोट के गांव चिमटीपुरा, कारेआम, रातेड़, दौरियापाठा, गैलडुब्बा, तालाबढाना, पचगोल, डोलनी, मालनी, सहरा, घानाकौडिय़ा, खमारपुर सहित अन्य गांव हैं जहां अब तक कोरोना नहीं पहुंचा।
६० से ७० की उम्र तक रहते है बाल काले
यहां के ग्रामीणों की औसत आयु ९० साल है। ६० से ७० की उम्र तक बाल काले ही रहते हैं। शुगर, बीपी, मोटापा देखने भी नहीं मिलता। आंखों की रोशनी भी इतनी तेज होती है कि किसी को भी चश्मा नहीं लगा। ७० की उम्र पार करने के बाद ही बालों में सफेदी देखने मिलती है।
चर्मरोग ही सबसे बड़ी बीमारी
जंगलों के बीच रहने वाले इस ग्रामीणों में चर्म रोग ही सबसे बड़ी बीमारी सामने आई है। जिससे ग्रामीण ज्यादा परेशान रहते हैं। खानपान में गर्म चीजों का ज्यादा इस्तेमाल और साफ-सफाई नहीं रखने की वजह से इन्हें चर्मरोग ज्यादा होते हैं। रोग गंभीर होने पर ही चिकित्सकीय उपचार का सहारा लेते हैं।
डॉ चिरंजीवी पवार, आयुष चिकित्सक
ऐसी है यहां की दिनचर्या
- सूर्योदय के पूर्व (४ बजे सुबह) उठना।
- बंटे हुए काम के मुताबिक पर सदस्य घर से निकल जाते हैं।
- परंपरागत मक्का, ज्वार, कोदो कुटकी जैसा देशी खाना खाते हैं।
- चूल्हे में ही पकता है खाना, पत्थर में पिसता है मसाला।
- जंक फूड की जगह कंद-मूल-फल ही खाते हैं।
- सूर्यास्त के बाद खाना खाकर सो भी जाते हैं।
- सोने के लिए खाट या पलंग का इस्तेमाल नहीं करते।
Created On :   17 Jan 2022 1:53 PM IST