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अंधेरा दूर करने वालों के घर ही छाया अंधेरा, महंगाई के कारण दम तोड़ रही पुरानी परंपरा
डिजिटल डेस्क दमोह। दूसरों के घर रोशन करने वालों के घर एक कतरा रोशनी भी पहुंच सकेगी या नहीं इसमें संशय हंै । यहां बात परम्परागत रूप से दीवाली के दिए बनाने वालों की हो रही है । ये कमजोर लोग औरों की दीवाली तो रोशन करते हैं किंतु इनके घरों का अंधेरा मिटने का नाम नहीं लेता ।बढ़ती मंहगाई के बाद भी इनकी मेहनत का सही मूल्य इन लोगोंको न मिलने के कारण यह उद्योग धीरे -धीरे दम तोड़ रहा है ।अंधकार का सीना चीरकर प्रकाश फैलाने वाले परम्परागत मिट्टी के दिये दीपावली के त्यौहार में प्रांसागिक बने हुए है दीपों की कतार बध्द रोशनी ही दीपावली का शाब्दिक और प्रांसागिक अर्थ है किन्तु बदलते संदर्भो में अब दीपो से अंधकार का मुकाबला करना अर्थहीन हो गया है। कुछ वर्षो पहले दीपावली मिट्टी के कलाकारों की आय का विशेष अवसर होता था लेकिन आज यह पहचान खो रहा है नगर के अधिकांश कुम्हार परिवार अब दिये नही बनाते वैश्विक वित्तीय संकट से अंजान श्याम कुमार ने इस वर्ष गत वर्ष की तुलना में 2000 दिये अधिक बनाये है गत वर्ष उसने 5 हजार दिये बनाए थे । परम्परागत चाक पर मिट्टी के दिये को आकार देते श्याम का कहना था कि दिये की कीमत महंगाई के कारण इस वर्ष अधिक है इस वर्ष दिये 60 से 80 रूपये सैकड़ा के भाव बिक रहे है।
समस्यायें अधिक
पार्वती बाई का कहना था कि दिये बनाने में भारी दिक्कतो का सामना करना पड़ता है कंडे व लकड़ी की बड़ी समस्या है जिससे दियो को पकाने में भारी मुश्किले उठानी पड़ रही है इसलिए अब इस धंधे को लोग छोड़ रहे है।
घंटाघर पर दिया बेचने वाली पार्वती बाई की भी यही शिकायत है कि हम लोगों को कड़ी मेहनत की उचित कीमत नही मिलती। मिट्टी के खिलौने विशेष दिये लक्ष्मी जी की मूर्ति लेकर घंटाघर तक आने में कुछ टूट जाते है और कुछ ग्राहको को दिखाने के दौरान, इसका पूरा परिवार इसी धंधे से जुड़ा है कुछ लोग गली-गली घूम कर धंधा अनेक कई वर्षो से करते आ रहे है।
विशेष दिये भी बनाये
इनके द्वारा दीपावली के लिये विशेष प्रकार के दिये भी बनाकर बेचे जा रहे है। साधारण मिट्टी के दियो की तुलना में इन विशेष दियो को बनाने में अधिक मेहनत करना पड़ती है इस कारण से इनकी कीमत भी अधिक रहती है इस वर्ष सभी को अच्छी विक्री की उम्मीद दिखाई दे रही है। वही लक्ष्मी गणेश की मूर्ति में जितनी मेहनत लगती है उतनी कीमत मिलती नही है। इनका तो यह भी कहना है कि विकल्प ना होने से मजबूरी में यह धंधा कर रहे है।
इस धंधे में नई पीढ़ी की रूचि नही
अनेक वर्षो से पीढ़ी दर पीढ़ी दीपको का निर्माण कर रहे नंदन चक्रवर्ती के अनुसार हमारे व्यवसाय को शासन द्वारा किसी भी प्रकार की मदद ना दिये जाने से यह परम्परागत व्यवसाय दम तोड़ रहा है और नई पीढ़ी की रूचि अन्य व्यवसायों में बड़ रही है। इनका कहना है कि हमारे परिवार में कई पीढिय़ो से यह काम होता आ रहा है लेकिन नई पीढ़ी इस कार्य को करने तैयार नही है।
Created On :   9 Oct 2017 1:21 PM IST