जनजातीय गौरव दिवस आज, जिले की जनजातियों को चाहिए कई सौगातें
सिवनी जनजातीय गौरव दिवस आज, जिले की जनजातियों को चाहिए कई सौगातें
डिजिटल डेस्क सिवनी। आज जनजातीय गौरव दिवस है। महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा जंयती क ो जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है। जिले की बात करें तो यहां आदिवासियों की कुल जनसंख्या लगभग ३५ प्रतिशत से अधिक है। बावजूद इसके जिले के आदिवासियों को अभी भी कई सौगातों का इंतजार है। जिले में पलायन, खेती और रहने की जमीन, धार्मिक स्थलों की पहचान, जन, जंगल और जमीन के लिए अभी भी आदिवासी संघर्ष कर रहे हैं। किसी कुशल नेतृत्व के न होने के चलते आदिवासियों को अपना हक नहीं मिल पा रहा है।
हमने झेला है विस्थापन का दर्द
विकास का फल भले किसी को भी मिले लेकिन जिले के आदिवासियों को विस्थापन से दर्द ही मिला है। चाहे बरगी बांध के विस्थापितों की बात करें या फिर भीमगढ़ या दूसरे बड़े बांधों के विस्थापितों की। इनमें अधिसंख्या बहुलता आदिवासियों की थी लेकिन बांधों के बनने के दशकों बाद भी कई परिवार अभी भी अपनी जमीन, पहचान और सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं। घंसौर विकासखंड में इस दुर्दशा को साफ देखा जा सकता है। जहां आज भी अच्छी सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा की मूलभूत जरूरतों के लिए आदिवासी संघर्ष कर रहे हैं।
पलायन के लिए हम ही होते हैं मजबूर
जिले में आजादी के ७६ वर्षों के बाद भी उद्योग धंधों का व्यापक अभाव बना हुआ है। व्यापक वन क्षेत्र होने के बावजूद आदिवासियों को दीपावली और होली के बाद पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है। कम जमीन या जमीन न होने के चलते रोजी रोटी के लिए आदिवासी समाज के अधिकांश युवा और बड़े दूसरे महानगरों का रुख करते हैं। जहां पर खतरनाक उद्योगों में उनका शोषण होता है। जिले में लघु उद्योगों को प्रोत्साहन न दिए जाने के कारण अधिकांश कुटीर और लघु उद्योग दम तोड़ चुके हैं।
महिलाएं भी होती हैं शोषण की शिकार
जिले की आदिवासी महिलाएं शोषण का शिकार होती हैं। मानव तस्करी छिपे तौर पर जिले में जारी है। जिसमें नौकरी, पैसा का लालच दिखाकर अक्सर युवतियों को दूसरे शहरों में ले जाया जाता है। इसके अलावा धर्मातंरण आदि की घटनाएं भी अधिक हो रही हैं। ऐसी खबरें और शिकायतें नई घटना के सामने आने के साथ ही वक्त की धूल में दब जाती है।
पहचान का संकट
जिले में भारत छोड़ो अभियान के काफी पहले ही जंगल सत्याग्रह हो चुका था। देश की आजादी में सहयोग देने के बावजूद आज भी आदिवासी अपनी पहचान के लिए संघर्ष करते नजर आते हैं। टुरिया के स्मारक में साल में एक दो दिन होने वाले आयोजनों को छोड़ दें तो आदिवासियों क े आराध्यों की पहचान के लिए कुछ खास नहीं किया गया। जिले में आदिवासियों के आराध्य कुंभा बाबा पेंच नेशनल पार्क क्षेत्र में आते हैं। वहां आने जाने के लिए रास्ता दिए जाने की मांग लंबे समय से की जा रही है लेकिन अब तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। साल में सिर्फ एक दिन आदिवासी अपने आराध्य के दर्शन कर सकते हैं। इसी तरह उनके दूसरे धार्मिक स्थलों के हाल हैं। जो अपने विकास और पहचान के लिए तरस रहे हैं।
सही नेतृत्व का इंतजार
जिले में कहने को तो आदिवासियों के दर्जनभर से अधिक संगठन सक्रिय हैं लेकिन आदिवासी सिर्फ मुद्दा बन कर रह जाते हैं। आदिवासियों के विकास, उनकी जन, जंगल और जमीन की मांग के लिए अबतक कोई संगठन विस्तृत कार्ययोजना नहीं ला पाया है। आदिवासियों के ये संगठन कुछ दिनों बाद आपस में ही फूट पडऩे से खत्म हो जाते हैं और उनके मुद्दे फिर वहीं के वहीं रह जाते हैं। हाल के दिनों में कई ऐसी घटनाएं सामने आईं हैं जिन्हे संगठनों के द्वारा जोर शोर से उठाया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नहीं चाहिए कोरे आश्वासन
जिले में कुरई, लखनादौन, घंसौर आदि इलाकों में आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या मौजूद है लेकिन इन क्षेत्रों में खेती की तरक्की के लिए कोई प्रयास नहीं हुए। बांधों की समस्या लंबे समय से है। सर्वे हो जाते हैं लेकिन बांध नहीं बन पाता। रोजगार के लिए सरकारी योजनाएं कागजों पर हैं लेकिन जमीन पर नहीं। कुरीतियां अभी भी समाज में हैं। इनके विकास के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास आज की जरूरत है।