एएमए हर्बल प्रदेश में नील की खेती को देगा बढ़ाव, भूमि को उपजाऊ बनाती है ये खेती

उत्तर प्रदेश एएमए हर्बल प्रदेश में नील की खेती को देगा बढ़ाव, भूमि को उपजाऊ बनाती है ये खेती

Bhaskar Hindi
Update: 2022-10-12 08:09 GMT
एएमए हर्बल प्रदेश में नील की खेती को देगा बढ़ाव, भूमि को उपजाऊ बनाती है ये खेती

डिजिटल डेस्क लखनऊ।  नील या इंडिगो की खेती और उससे डाई का उत्पादन सबसे पहले भारत मे शुरू हुआ था। अंग्रेजों द्वारा नील की फसल से अमानवीय तरीके से डाई का उत्पादन करवाये जाने के चलते भारत में विद्रोह भी हुआ और इसकी खेती बंद होती चली गई। वर्तमान में केमिकल डाई से बढ़ रहे खतरों को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर नील का महत्व प्राकृतिक डाई के रूप में बढ़ गया है। न केवल प्राकृतिक डाई के रूप में बल्कि नील का पौधा भूमि के लिए अधिक लाभकारी होता है, यह मिट्टी को उपजाऊ बनाता है।

भारत में प्रमुख रूप से ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा नील के व्यापार की शुरुआत हुई थी। नील की फसल से डाई निकालने के लिए ज्यादातर नील घर अंग्रेजों ने ही बनवाए थे हालांकि, कुछ नील घरों का निर्माण डचों ने भी करवाया था। वर्तमान में  दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में इसकी खेती सर्वाधिक होती है। नील का इस्तेमाल कपड़ों को डाई करने में सबसे ज्यादा होता है। 19वीं शताब्दी में बिहार, बंगाल, उड़ीसा और यूपी नील की खेती का मुख्य केंद्र हुआ करता था।

अब उत्तर प्रदेश के किसानों ने भी नील की खेती के महत्व को पहचाना है और इसकी खेती को एक बार फिर अपनाना शुरू कर दिया है। नील की फसल भी अन्य दलहनों और फली वाली फसलों की तरह ही फलीदार फसल है, इसकी जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले बैक्टेरिया होते हैं, जो वायुमंडल से नाइट्रोजन सोखकर जमीन की उर्वरा क्षमता को बढ़ाते हैं। यह भी पाया गया है कि नील की फसल के बाद उसी खेत मे रोपी गई अन्य फसलों की पैदावार पहले से बढ़ गई क्योंकि जमीन की उर्वरता बढ़ चुकी थी। लखनऊ स्थित हर्बल डाई का उत्पादन करने वाली कंपनीं एएमए हर्बल ने हाल ही डेनिम इंडस्ट्री में रंगाई के लिए प्रयोग की जाने वाली इंडिगो डाई के लिए नील की खेती की शुरुआत की है।

लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले के अमरसंडा गांव में नील की खेती करने वाले किसान राम खिलावन बताते हैं, " नील की फसल तैयार होने में 90 दिन का समय लगता है। फसल तैयार होने के बाद इसे तने से काट लिया जाता है। इसकी पत्तियों को धूप में सूखने के लिए डाल दिया जाता है। सूखने के बाद उन पत्तियों का पाउडर बना लिया जाता है। इस पाउडर को लखनऊ की कंपनीं खरीद लेती है।  एक कटाई होने के बाद दूसरी फसल भी अगले 80 दिन में तैयार हो जाती है।"इस तरह से छह महीने के भीतर ही किसान एक फसल को दो बार काट सकते हैं। इस तरह से नील की फसल आम फसलों के मुकाबले किसानों को लगभग चार गुना का फायदा पहुंचाती है। साथ ही मेंथा की खेती के मुकाबले नील की कैश क्रॉप 30 फीसदी अधिक लाभ देती है।

राम खिलावन बताते है कि किसानों ने नील के साथ ही इस इलाके की परंपरागत फसल मेंथा भी बोते हैं। आम खेत की तुलना में नील के खेत में मेंथा लगाने से उसकी पैदावार पहले से काफी बढ़ गई। नील के पौधों को कोई जानवर खाता भी नहीं है। ऐसे में आवारा पशुओं से भी खेत की बहुत ज्यादा हिफाजत नहीं करनी पड़ती।

लखनऊ में तालकटोरा इंडस्ट्रियल इलाके में स्थित एएमए हर्बल की फैक्ट्री में अमरसंडा में पैदा हुई नील की खपत डेनिम के लिए बायो डाई बनाने में हो जाती है। एएमए हर्बल के को-फाउंडर व सीईओ, श्री यावर अली शाह कहते हैं, "हमने लागत को कम करने और मुनाफे में सुधार के उद्देश्य से लखनऊ के बाहरी इलाके में नील की खेती शुरू की थी। अब उसके बेहद उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे हैं। नील की खेती केवल किसानों के लिए ही लाभदायक नहीं बल्कि एक किलोग्राम सिंथेटिक इंडिगो की जगह बायो इंडिगो प्रयोग किया जाए तो कम खर्च और प्रयास में 10 किलोग्राम तक कार्बन फुटप्रिंट को कम किया जा सकता है।लाइफ साइकल एनालिसिस (एलसीए) रिपोर्ट में भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है। नील की खेती ने कपड़ा उद्योग के लिए लगातार प्रदूषण के बढ़ते स्तर की समस्या से निपटने के लिए एक बेहतरीन विकल्प तैयार किया है।"

एएमए हर्बल के वाईस प्रेसिडेंट, सस्टेनेबल बिजनेस अपॉर्चुनिटीज हम्ज़ा ज़ैदी के मुताबिक, "अमरसंडा और आसपास के इलाके में किसान परंपरागत तरीके से पिपरमेंट की खेती करते आए हैं, जिसकी लागत अधिक पड़ती है। जबकि नील या इंडिगो की खेती से उन्हें पहले से लगभग 30 फीसदी अधिक का लाभ प्राप्त हुआ, जो उनके लिए काफी उत्साहवर्धक रहा। नील की खेती के लिए किसी तरह के रासायनिक खाद या कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। साथ ही सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर्स का प्रयोग किया जिससे परम्परागत सिंचाई के मुकाबले 70 फीसदी तक पानी की बचत हुई।"

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