30 मई को मनाई गई अपरा एकादशी, इस व्रत से नष्ट होते हैं पाप

30 मई को मनाई गई अपरा एकादशी, इस व्रत से नष्ट होते हैं पाप

Bhaskar Hindi
Update: 2019-05-21 06:24 GMT

डिजिटल डेस्क। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा या अचला एकादशी कहते हैं। इस बार ये एकादशी 30 मई गुरुवार को मनाई गई। इस एकादशी व्रत को पुण्य फल देने वाला बताया गया है। इसके प्रभाव से मनुष्य के कीर्ति, पुण्य और धन में वृद्धि होती है। इस व्रत के पुण्य से ब्रह्म हत्या, असत्य भाषण, झूठा वेद पढ़ने से लगा हुआ पाप आदि नष्ट हो जाता है। इससे भूत योनी से भी मुक्ति मिल जाती है।

इस व्रत को करने से मनुष्य को तीनों पुष्करों में स्नान के समान, गंगा जी के तट पर पिण्ड दान के समान और कार्तिक मास के स्नान के समान, सूर्य-चंद्र ग्रहण में कुरुक्षेत्र में यज्ञ, दान एवं स्नान के पुण्य के समान फल की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा करते हैं।

तिथि प्रारंभ और समाप्ति

तिथि प्रारंभ: 29 मई 2019 को दोपहर 03 बजकर 21 मिनट से
तिथि समाप्‍त: 30 मई 2019 को शाम 04 बजकर 38 मिनट तक

इन बातों का रखें ध्यान
पुराणों में एकादशी के व्रत के बारे में कहा गया है कि व्यक्ति को दशमी के दिन शाम में सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए। रात में भगवान का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। एकादशी के दिन सुबह उठकर, स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। पूजा में तुलसीदल, श्रीखंड चंदन, गंगाजल व फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए। व्रत रखने वाले को पूरे दिन परनिंदा, झूठ, छल-कपट से बचना चाहिए। जो लोग व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें एकादशी के दिन चावल नहीं खाना चाहिए।

व्रत विधि
एकादशी के दिन साधक को नित क्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान के बाद व्रत का संकल्प लेना चाहिए। इसके बाद भगवान विष्णु, कृष्ण तथा बलराम का धूप, दीप, फल, फूल, तिल आदि से पूजा करना चाहिए। इस पूरे दिन निर्जल उपवास करना चाहिए, यदि संभव ना हो तो पानी तथा एक समय फल आहार ले सकते हैं। द्वादशी के दिन यानि पारण के दिन भगवान का पुनः पूजन कर कथा का पाठ करना चाहिए। कथा पढ़ने के बाद प्रसाद वितरण, ब्राह्मण को भोजन तथा दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। अंत में भोजन ग्रहण कर उपवास खोलना चाहिए।

अपरा एकादशी व्रत कथा 
कथा के अनुसार एक राज्य में महीध्वज नाम का एक बहुत ही धर्मात्मा राजा था। राजा महीध्वज जितना नेक था उसका छोटा भाई वज्रध्वज उतना ही पापी था। वज्रध्वज महीध्वज से द्वेष करता था और उसे मारने के षड़यंत्र रचता रहता था। एक बार वह अपने मंसूबे में कामयाब हो जाता है और महीध्वज को मारकर जंगल में फिंकवा देता है और खुद राज करने लगता है। अब असामयिक मृत्यु के कारण महीध्वज को प्रेत का जीवन जीना पड़ता है। वह पीपल के पेड़ पर रहने लगता है। उसकी मृत्यु के बाद राज्य में उसके दुराचारी भाई से तो प्रजा दुखी थी ही साथ ही अब महीध्वज भी प्रेत बनकर आने जाने वाले को दुख पंहुचाते। 

एक दिन उसके पुण्यकर्मों का सौभाग्य के चलते उधर से एक पंहुचे हुए ऋषि गुजर रहे थे। उन्हें आभास हुआ कि कोई प्रेत उन्हें तंग करने का प्रयास कर रहा है। अपने तपोबल से उन्होंनें भूत को देख लिया और उसका भविष्य सुधारने का जतन सोचने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने प्रेत को पकड़कर उसे अच्छाई का पाठ पढ़ाया फिर उसके मोक्ष के लिये स्वयं ही अपरा एकादशी का व्रत रखा और संकल्प लेकर अपने व्रत का पुण्य प्रेत को दान कर दिया। इस प्रकार उसे प्रेत जीवन से मुक्ति मिली और वो बैकुंठ गमन कर गया। 

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