पुरखों की विरासत: अपनों का अहसास कराती है मिट्टी की खुशबू
छिंदवाड़ा पुरखों की विरासत: अपनों का अहसास कराती है मिट्टी की खुशबू
डिजिटल डेस्क,छिंदवाड़ा। आंगन में महंगी कार, ट्रैक्टर ट्राली के साथ अलग-अलग कृषि यंत्र, तीन चार बाइक खड़ी हैं। घर के भीतर अनाज का अंबार लगा है। अलग से एक पक्का मकान भी बना लिया लेकिन सुकून की नींद उसी छत के नीचे आती है जहां पुरखे रहा करते थे। दरअसल मिट्टी की मोटी दीवारों पर कच्चे कवेलू बनाने वाले पुरखों की मेहनत से बनाने मकानों मिट्टी की खुशबू अपनों के आसपास होने का एहसास कराती है। गांवों में ऐसे कई सालों पुराने मकानों को नई पीढ़ी अपनी विरासत के बतौर संभाले हुए हैं।
जिले के ग्रामीण अंचल में पक्के मकानों की तुलना में ऐसे पुस्तैनी कच्चे मकान बहुत कम देखने मिलते हैं। जहां सेहत और सुकून का खजाना छुपा है। मिट्टी की खुशबू का एहसास कराती ये पुर्खों की विरासतें वातानुकूलित हैं। इन घरों में रहने वाले ज्यादातर संपन्न परिवार ही बचे हैं। जो इन मकानों की खासियत को पहचानते हैं। इन मकानों की डिजाइन और इसमें इस्तेमाल किए गए मटेरियल की वजह से सर्दियों में न तो ज्यादा ठंड का एहसास होता है और न ही गर्मियों में ज्यादा तपन महसूस होती है। एक्सपर्ट भी मानते हैं कि पुराने जमाने के ये मकान वैज्ञानिक कारणों से सेहत के लिए फायदेमंद हैं।
इंजीनियरिंग ऐसी जो सुरक्षा और सेहत से जुड़ी
- कमरों के अंदर की ऊंचाई १५ फीट से ज्यादा
- शुद्ध हवा के लिए भरपूर वेंटीलेशन
- दीवार की मोटाई तीन फीट से ज्यादा
- कवेलू वाली छत के नीचे एक कच्ची छत
- गुड़-चूना-बेल से दीवारों की जुड़ाई
- मजबूत दरवाजे-चौखट पर नक्काशी
इन मकानों के फायदे भी बहुत
- मोटी दीवारें, डबल छत से तापमान का संतुलन
- चारों तरफ से शुद्ध हवा का प्रवाह रहता है
- सुरक्षा की दृष्टि से भी अनुकूल हैं ये मकान
- गोबर से लिपे फर्श सेहत के लिए फायदेमंद
नया मकान तो बना लेकिन सुकून यहीं पर
सारना निवासी स्वर्गीय चौधरी गुलाबसिंह चौधरी की हवेली १०९ में बनी थी। गाड़ी-बंगला, जमीन, हर तरह से संपन्न परिवार है, लेकिन नई पीढ़ी ने पुरखों की विरासत को संभाल रखा है। मोटी-मोटी दीवारें, पीओपी की तरह लकड़ी के पटियों से बनी छत हर कमरे को खूबसूरत बनाती है। हवेली इतनी बड़ी की कुछ बच्चे तो पूरा घर भी नहीं घूम पाए हैं। इसी के बगल में एक नया मकान खड़ा किया है। परिवार बुजुर्ग ग्यानवती चौधरी पति स्वर्गीय राजकुमार चौधरी (६७) आज भी पुरानी हवेली में रहती हैं। इनका कहना है कि इस घर में ही सबसे ज्यादा सुकून मिलता है।
मेंटनेंस महंगा फिर भी मोह कम नहीं
आठ पीढिय़ों से मकान में रह रहा कोटलबर्री का चौरे परिवार आर्थिक रूप से संपन्न है। कच्चे मकान के बगल में खाली पड़ी जगह पर दुकाने तान दी हंै। लेकिन परिवार आज भी इसी कच्चे मकान में रहता है। परिवार की बुजुर्ग पंखी बाई चौरे (८०) बताती हैं कि मैं इसी घर में शादी होकर आई थी। करीब १५० साल से ज्यादा समय इस घर को बने हो गए। कवेलू वाला मकान, अंदर पीओपी की तरह लकड़ी का पाटमा, दरवाजों से लेकर लकड़ी के पिल्लरों पर नक्काशी इस घर की शोभा में चार चांद लगा देती है। पक्के मकानों की तुलना में इनका मेंटनेंस महंगा पड़ता है।
१५० साल बाद भी मजबूत है ये हवेली
मालगुजार भुवनलाल मिश्रा की हवेली जहां कभी हाथी भी पाला जाता था। डेढ़ सौ साल पुराने इस घर की चमक अब भी बरकरार है। चादरनुमा पत्थर से घर की छत ढली है। चूना-गुड़ की जुड़ाई से मकान से खड़ा है। आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बाद भी किशोर पिता लक्ष्मीप्रसाद अवस्थी बताते हैं कि इन मकानों की तकनीक आज के पक्के मकानों से कहीं ज्यादा अलग है। हर मौसम में तापमान का संतुलन बना रहता है। इनके दरवाजे और चौखट ही इनकी भव्यता का प्रतीक हैं। चार मंजिला इमारतों में भी इतना सुकून नहीं मिलता जो यहां मिलता है।
एक्सपर्ट व्यू
पुराने जमाने के मकानों के निर्माण की तकनीक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो सेहत के लिए बहुत ही फायदेमंद थी। बेहतर सेहत के लिए शुद्ध वातावरण जरूरी होता है। इन मकानों में हवा के लिए बेहतर व्यवस्थाएं बनाई जाती थी। मिट्टी का फर्श तापमान के संतुलन को बनाए रखने के लिए कारगर होात है। मिट्टी की मोटी दीवारें और कवेलू वाली छत के नीचे दूसरी छत गर्मी की तपन को कमरों में नहीं पहुंचने देती है। गोबर से फर्श को लीपना और चूने की बार्डर बनाना यह सब संक्रमण का खतरा कम करने के उपाए होते हैं।
डॉ केके श्रीवास्तव, रिटायर्ड सीएमएचओ