अनूठी खबर: नागपुर के इस दूरंदेश शख्स ने जगाई देहदान की अलख, अकेले ही चले थे और कारवां बनता गया

  • डॉ. चंद्रकांत मेहर देहदान को लेकर लोगों में जागरुकता पैदा कर रहे हैं
  • मोक्ष और स्वर्ग की कामना से नहीं, मानव-कल्याण के लिए किया गया दान ही सबसे बड़ा दान
  • जानकारी जुटानी शुरू की और देहदान पर पीएचडी कर डाली

Bhaskar Hindi
Update: 2024-01-12 13:43 GMT

डिजिटल डेस्क, नागपुर, चंद्रकांत चावरे/दीप्ति कुशवाह। देहदान क्या है और इसकी जरूरत क्यों है, इसे लेकर उपराजधानी के डॉ. चंद्रकांत मेहर ने न केवल पीएचडी कर डाली। बल्कि वे देहदान शब्द के जनक भी बनकर उभरे, अब वे देहदान को लेकर लोगों में जागरुकता पैदा कर रहे हैं। खास बात हो कि 1986 से पहले तक देहदान शब्द से पूरा देश अनभिज्ञ था। 14 जनवरी 1986 को पहलीबार यह शब्द प्रचलन में आया। इसकी शुरुआत यहीं से ही हुई है। आज अनेक समाजसेवी संस्थाएं अपने स्तर पर देहदान के प्रति अलख जगा रही हैं। लोगों में इस बात की समझ पैदा कर रही हैं कि मोक्ष और स्वर्ग की कामना से नहीं, मानव-कल्याण के लिए किया गया दान ही सबसे बड़ा दान है। देहदान का व्यापक अर्थ क्या है? स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा पाखंड के जाल में क्यों फंस गया? हम-आप क्या करें? ऐसे अनेक सवालों और देहदान से जुड़े सभी पहलुओं से पाठकों को रू-ब-रू करा रहा है ‘दैनिक भास्कर’।

मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल


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डॉ. चंद्रकांत मेहर ने 1979 में पुणे में इंजीनियरिंग की शिक्षा के दौरान देखा कि उनके एक मित्र ने अध्ययन के लिए, अन्य दो मित्रों के साथ मिल कर ‘मानव-खोपड़ी’ 80 रुपए में खरीदी थी। उसी समय डॉ. मेहर को लगा कि रीसाइक्लिंग प्रकृति का उपयोगी और महत्वपूर्ण नियम है। मृत शरीर का भी उपयोग किया जाना चाहिए। उन्होंने जानकारी जुटानी शुरू की और ‘देहदान’ पर पीएचडी कर डाली। वे ‘देहदान’ शब्द के जनक हैं।


राज्य व राष्ट्रीय स्तर के विविध पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके डॉ. मेहर 1972 से देहदान के प्रति जागरूकता के लिए कार्य कर रहे हैं। उनके द्वारा 1985 में स्थापित ‘देहदान सेवा संस्था’ ने देहदान करनेवालों के लिए संकल्प प्रतिज्ञापत्र तैयार किया है। इसे पूरे देशमें मान्यताप्राप्त है। सरकार की तरफ से ऐसा कोई संकल्प पत्र नहीं है।

संस्था के पास हर साल देहदान की इच्छा रखनेवाले 2000 संकल्प प्रतिज्ञापत्र संकलित होते हैं। लेकिन देहदान नाममात्र का ही होता है। 1985 से अब तक करीब 1000 मृतदेह सरकारी महाविद्यालयाें को (सालाना औसत 26) सौंपी गई हैं। कोरोना से पहले स्थिति सुधर रही थी। कोरोना के बाद से देहदान की संख्या में कमी आई है।

देश के 22 राज्यों में 125 से अधिक संस्थाएं देहदान के लिए काम कर रही हैं।

केवल एक प्रतिशत!

शरीररचना विज्ञान के विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए मृतदेह की जरूरत होती है। एक मृतदेह पर छह विद्यार्थी प्रायोगिक अध्ययन करते हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि महाविद्यालयों को मृत देह उपलब्ध नहीं हो पा रही। छात्रों को चित्र, प्लास्टिक के ढांचे, गूगल की सामग्री के माध्यम से अध्ययन करना पड़ता है।

नागपुर के सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों में शरीररचना विज्ञान का अध्ययन करनेवाले करीब 250 से अधिक विद्यार्थी होते हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो उन्हें सालाना 41 से अधिक मृतदेह की आवश्यकता होती है। लेकिन दान में प्राप्त होने वाली देहों की संख्या काफी कम है। 2021 में 8, 2022 में 13 और 2023 में 26 देहदान हुए हैं। इनमें से कुछ देह, विदर्भ के अन्य चिकित्सा महाविद्यालयों को, मांग के अनुसार भेजनी पड़ती हैं। मेडिकल व मेयो अस्पताल में हर महीने औसतन 600,यानि सालाना 7200 मृत्यु दर्ज हाेती हैं। नागपुर महानगर पालिका अंतर्गत सालाना औसतन 17 हजार से अधिक अंत्येष्टि का अनुमान बताया गया है। मृतकों में बालक, गंभीर बीमारी और दुर्घटनाओं से होनेवाली मृत्यु संख्या आधी भी मान ली जाए, तब भी 8500 लोगों की मृत्यु सामान्य होती है। इनमें से सालभर में मात्र 23 मृतदेह का मिलना यह बताता है कि केवल 0.27 फीसदी देहदान ही हो रहा है। कुल एक प्रतिशत भी देहदान नहीं होता।


राह में हैं तरह-तरह के रोड़े

हमारा सोच, मान्यताएं, कुरीतियां, धार्मिक विधियां, पाखंड आदि देहदान-निर्णय को प्रभावित करती हैं। सबसे पहले मृतक के परिजन यह सोचते हैं कि हमारे खानदान में पहले कभी मृत देह को अस्पताल को नहीं सौंपा गया है। दूसरा- मृतक की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी। फिर धर्म-कर्म, विधि-विधान, शास्त्र आदि का पाखंड सामने आ जाता है।

बरसों पहले लिया गया देहदान का संकल्प, मृत्यु के समय परिजनों को याद नहीं रह जाता। अंत्येष्टि कर दी जाती है।

मृत्यु के समय माहौल गमगीन होता है। इस समय कोई असुविधा में उलझना नहीं चाहता है।

लोग इस काम को जटिल समझते हैं जबकि ऐसा नहीं है। केवल सरकारी अस्पताल में सूचना देनी होती है। बाकी का काम अस्पताल की टीम करती है। शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय व अस्पताल (मेडिकल कॉलेज) में 2002 से राज्य सरकार द्वारा गठित एक कमेटी है। इस कमेटी के अध्यक्ष अधिष्ठाता, सचिव चिकित्सा अधीक्षक, सदस्याें में शरीर रचना शास्त्र विभाग के डॉ. अरुण कसोटे व सामाजिक सदस्य के रूप में डॉ. चंद्रकांत मेहर हैं।

घर में मृत्यु हुई हो तो देहदान के लिए डॉक्टरका सर्टिफिकेट जरूरी होता है कि सामान्य मृत्यु हुई है। डॉ. मेहर बताते हैं, डॉक्टर ऐसा लिखित पत्र देने से आनाकानी करते हैं। इससे भी देहदान रुक जाता है।

लावारिस लाशों को बहुधा, पुलिस कानून-पालन की बाध्यता के कारण कॉलेजों को नहीं दे पाती। उन्हें पहले लोगों को सूचित करने के लिए प्रसार माध्यमों में जानकारी देनी होती है, इसके एक-दो दिन बादतक रिश्तेदारों का इंतजार करना होता है। उनके न आने पर अंत्येष्टि। इस सबमें दो-तीन दिन गुजर जाते हैं और देह कॉलेज भेजे जाने लायक नहीं रह जाती।



माटी तन अनमोल

भजनों में कहा जाता है- ‘माटी मोल तन...’। विज्ञान इस बात से सहमत नहीं। मरने के बाद देह परोपकार की दृष्टि से अनमोल हो जाती है। एक देह अनेक के लिए जीवनदायी साबित हो सकती है। मेडिकल छात्रों के लिए यह अध्ययन व अनुसंधान के काम आती है। साथ ही- नेत्र, त्वचा, किडनी, मस्तिष्क, टिशू, कान का पर्दा, फेफड़े, हृदय, लिवर, रक्त, हडि्डयां, आदि जरूरतमंद रोगियों में प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। वीर्य व अन्य स्त्राव और अवयवों से दवाएं, द्रव्य, रसायन आदि बनाए जाते हैं।

मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन अध्ययन के लिए मृत शरीर उपलब्ध नहीं हो रहे। बिना प्रात्याक्षिक छात्र डॉक्टर बन रहे हैं। इसका समाधान होना चाहिए।

वायु प्रदूषण में अंत्येष्टि की बड़ी भूमिका है। देहदान से यह रुकेगा। लकड़ी बचेगी, जंगल बचेंगे। अन्य संसाधनों को नुकसान नहीं होगा। खर्च बचेगा। हमारा धर्म दान को पुण्य का काम बताता है और देहदान बहुत बड़ा दान है।

रशिया में 1930 से मृत शरीर से लाल-श्वेत रक्त कोशिकाएं, प्लाज़्मा और प्लेटलेट्स निकाले जाते हैं। डॉ. मेहर के अनुसार- देश में सालाना 1.50 करोड़ की मृत्यु होती है। इनमें से 50 प्रतिशत मृत्यु विविध कारणों से और शेष 50 प्रतिशत यानि 75 लाख सामान्य मृत्यु प्रकरणों में, मृत-देह से करीब 7 करोड़ यूनिट रक्त संकलित किया जा सकता है। देश में सालाना 1.50 करोड़ यूनिट रक्त की आवश्यकता है।शेष निर्यात किया जा सकता है। अमेरिका में रक्त का पाउडर बनाकर रोगियों की जान बचाने में प्र्रयोग किया जाता है। विदेशों में मृतक के अवयवों से दवाएं बनती हैं। शल्यक्रिया के बाद अंगों की सिलाई करने के लिए काम आने वाला धागा आंतों से बनता है। मस्तिष्क का डोपामाइन रसायन छह घंटे तक काम में लेने योग्य रहता है। इससे विस्मरण जैसी बीमारियों का इलाज हो सकता है हालांकि कई तकनीक अभी भारत में उपलब्ध नहीं हैं।

देहदान क्या और क्यों?

देहदान के बारे में आम समझ यह है कि मृत शरीर की अंत्येष्टि न कर अस्पताल को सौंप देना। अपने अर्थों में देहदान इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण और गरिमामय है। देहदान करनेवाले परिवार का फैसला, हद दर्जे तक हिम्मत वाला होता है। शोक के समय में अपने आपको संभालना और समाज का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर पाना, असाधारण बात है। मृत्यु के बाद देह के माध्यम से मानवजाति पर उपकार, इसी का दूसरा नाम है ‘देहदान’। मृतदेह का सर्वाधिक उपयोग मेडिकल चिकित्सा के अध्ययन में छात्रों द्वारा किया जाता है। स्वास्थ्य, पर्यावरण, सामाजिक, शैक्षणिक, अनुसंधान, विज्ञान व तकनीक आदि क्षेत्रों में भी इसका महत्वपूर्ण उपयोग है।


कौन कर सकता यह महादान 

कोई भी व्यक्ति जीते जी देहदान का संकल्प ले सकता है। लिंग, उम्र, शिक्षा आदि का कोई बंधन नहीं है। बॉम्बे एनाटॉमी कानून 1949 लावारिस लाशों के लिए बनाया गया था। 1975 में इस कानून में सुधार किया गया और कलम 5(ब) के अनुसार जो व्यक्ति मृत्युपूर्व मौखिक अथवा लिखित देहदान की इच्छा व्यक्त करता है, परिवार उसकी मृत्युपरांत देहदान कर सकता है। मृत्यु के 8 घंटे के भीतर प्रक्रिया पूरी करनी पड़ती है। प्रक्रिया में कोई कानूनी पेंच या दस्तावेज संबंधी प्रक्रिया नहीं है। देहदान संकल्प अस्पताल के एक फॉर्म को भरकर लिया जाता है। उसकी एक प्रमाणित प्रति संबंधितों को दी जाती है। 


फिल्म के जरिये जागरण

शहर के युवा कलाकार व दिग्दर्शक नागेश वाहुरवाघ ने ‘संत कबीर फिल्म प्रोडक्शन’ अंतर्गत ‘देहदान जागरूकता’ पर एक लघु फिल्म (2018), स्वयं की पूंजी से बनाई। इसके पोस्टर का विमोचन मंत्रालय में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री सुरेश खाडे के हाथों हुआ था। इसे थिएटरों, सार्वजनिक स्थलों, ग्रामीण क्षेत्रों में दिखा कर जनजागृति की जानी चाहिए, समाज कल्याण विभाग से यह मांग की जा रही है। 2020 में आंबेडकरवादी विश्व साहित्य सम्मलेन में फिल्म को पुरस्कृत किया गया है।

जागरूकता की कमी


नरेंद्र सतीजा, संयोजक, कला मंच समाजसेवी संस्था के मुताबिक 5 जनवरी 1997 को मेरे मित्र ने पिता की मृत्यु होने की जानकारी देते हुए देहदान की इच्छा व्यक्त की। हमारी संस्था के तरफ से यह मेडिकल को दिया गया पहला देहदान था। उस समय से हमारी संस्था देहदान के लिए काम कर रही है। हम संकल्प प्रतिज्ञापत्र भरकर देहदान सेवा संस्था को सौंप देते हैं पर फिर भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद परिजन सूचना नहीं देते। विडंबना है कि लोग अब तक रक्तदान, नेत्रदान, अंगदान और देहदान के प्रति जागरूक नहीं हुए है। सरकार को ऐसे दानी परिजनों के लिए पुरस्कृत या सम्मानित करने की कोई योजना तैयार करनी चाहिए। इससे समाज को प्रेरणा मिलेगी।


सकारात्मक बदलाव जरूरी  

डॉ. अविनाश गावंडे, चिकित्सा अधीक्षक, मेडिकल कॉलेज के मुताबिक मेडिकल की पढ़ाई की दृष्टि से देहदान एक बड़ी आवश्यकता है। मेडिकल सेवा की ओर से समुपदेशन किया जाता है। कई संस्थाएं काम कर रही हैं। इसके बावजूद, लोगों में जागरूकता का अभाव है।





 

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