Chhichhore Review: मस्ती, मजाक और इमोशंस का भरपूर पैकेज, समझाती है जिंदगी का फलसफा
Chhichhore Review: मस्ती, मजाक और इमोशंस का भरपूर पैकेज, समझाती है जिंदगी का फलसफा
डिजिटल डेस्क, मुम्बई। श्रद्धा कपूर और सुशांत सिंह राजपूत स्टारर फिल्म छिछोरे आज सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। इस फिल्म को इन दोनों के अलावा ताहिर राज भसीन, वरुण शर्मा, सहर्ष शुक्ला, रोहित चौहान, तुषार पांडे, नवीन पॉलीशेट्टी मुख्य भूमिका में हैं। इस फिल्म को नितेश तिवारी ने डायरेक्ट किया है। फॉक्स स्टार स्टूडियोज, साजिद नाडियाडवाला इस फिल्म को प्रोड्यूस किया गया है।
इस फिल्म की कहानी अन्नी, माया, सेक्सा, डेरेक, एसिड, मम्मी, वेबड़ा और रैगी के इर्द गिर्द घूमती है। इन मुख्य किरदारों के अलावा और भी तमाम किरदार हैं जो कहानी में रंग भरने आते जाते रहते हैं। कॉलेज में जूनियर्स और सीनियर्स का गैंग बनता है। हॉस्टलों के बीच चलने वाली अहम की लड़ाई सामने आती है। दो हॉस्टल एक दूसरे के सामने आ डटते हैं खेल के मैदान में। ये कहानी अतीत की है। वर्तमान में ये सारे दोस्त मिले हैं अन्नी यानी अनिरुद्ध पाठक के बेटे की जान बचाने के लिए। इम्तिहान में नाकाम रहने का दबाव न झेल पाए अन्नी के बेटे को इन दोस्तों की कहानी सुनकर जिंदगी समझ आती है।
हिंदी सिनेमा का कोई निर्माता इन दिनों अगर कोई फिल्म बनाकर इसे अपने बच्चों के लिए बनी सबसे अच्छी फिल्म बताकर गर्व महसूस करता है, तो मौजूदा दौर के लिए ये बड़ी बात है। साजिद नाडियाडवाला ने ढेरों फिल्में बनाई हैं लेकिन "छिछोरे" उनकी फिल्मोग्राफी में एक सहज इजाफा भर नहीं है। यह फिल्म बताती है कि इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन प्रोड्यूसर्स काउंसिल का ये चेयरमैन चाहे तो हिंदी सिनेमा की दशा और दिशा दोनों बदलने में बड़ी भूमिका निभा सकता है और यही इस फिल्म की जीत है। "दंगल" के बाद बतौर निर्देशक नितेश तिवारी की ये अगली फिल्म है और वह अगर "दंगल" से आगे का कुछ नहीं बना पाए तो उससे पीछे भी नहीं गए हैं।
नितेश तिवारी अपनी कहानियां खुद गढ़ते हैं। बाकी लोग भी उसमें खाद पानी डालते हैं उनका सिनेमा भारत की कहानी कहता है। इन कहानियों में एक आम इंसान की भावनाएं हैं। उसकी सोच है और सबसे बड़ी बात ये है कि इसमें कम से कम दो पीढ़ियों के बीच होने वाली बातचीत है, जो व्हाट्सऐप के चलते लगातार कम होती जा रही है। "दंगल" में महावीर फोगट अपनी बेटियों के लिए परेशान है। यहां एक कामयाब बिजनेसमैन और उसके लंगोटिया यार अपने बेटे के लिए। कहानी की खटकने वाली बात ये है कि इतने पक्के दोस्तों ने आपस में जुड़े रहने के लिए कोई व्हाट्सऐप ग्रुप क्यों नहीं बनाया।
फिल्म के निर्देशन की बात करें तो यह फिल्म कहीं न कहीं "थ्री ईडियट्स" की कहानी से मेल खाती है। इसके अलावा उन्होंने अपने कौशल का अतिरिक्त प्रदर्शन किया है। अस्पताल की घटनाओं और हॉस्टल की घटनाओं को वह मानवीय संवेदनाओं से जोड़ने की कोशिश करते हैं और यह फिल्म के कथ्य में कई बार खटकती हैं। नितेश ने अपनी कहानी के सारे पात्र बहुत सटीक चुने हैं। इसके लिए कास्टिंग निर्देशक मुकेश छाबड़ा ज्यादा तारीफ के हकदार हैं। यहां फिल्म का कोई एक हीरो नहीं है। सुशांत का किरदार सिर्फ कहानी का आधार है। श्रद्धा कपूर उस पर समय का पहिया चढ़ाती हैं लेकिन समय को आगे बढ़ाने वाली सुइयां बने हैं इसके बाकी कलाकार। वरुण शर्मा का किरदार हो या फिर मम्मी के नाम से पुकारे जाने वाले तुषार पांडे, दोनों की अदाकारी फिल्म की जान है। सहर्ष शुक्ला बेवड़ा के किरदार में प्रभावित करते हैं तो डेरेक बने ताहिर भसीन का काम भी लाजवाब है।
वहीं अमलेंदु चौधरी की सिनेमैटोग्राफी हॉस्टल लाइफ का बहुत सही खाका परदे पर उकेरती है। फिल्म का संपादन भी निर्देशकीय दृष्टि के हिसाब से ठीक है। कहा जा सकता है कि फिल्म तकनीकी रूप से भी अच्छी बन पड़ी है। हॉ... लेकिन फिल्म का संगीत लोगों के दिल को नहीं छू पाया। अगर आप कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र हैं तो ये फिल्म आपको जिंदगी क्या है, ये समझा सकती है और अगर आप अभिभावक हैं तो ये फिल्म आपको ये समझा सकती है कि इट इज ओके टू फेल। सिर्फ कॉलेज स्टूडेंट ही नहीं हर किसी को यह फिल्म एक बार जरुर देखने चाहिए। क्योंकि इस फिल्म् को देखकर आपको अपनी कॉलेज लाइफ जरुर याद आएगी।